29 अप्रैल 2012

कोई भीगा स्पर्श

कच्ची बूंदों की
फुहारों में सिहर कर
 जब किसी फूल का अंतर
झील सा काँप कर
गुनगुनाने लगता है,
अथवा किसी पक्षी की
रोमिल बरौनियों की छाँव में
कोई एकांत प्रतीक्षा तीव्रतर हो
सुगबुगाने लगती है,
तब लगता है कि आकाश ने
जरूर किसी मेघखंड की
काव्य ऋचा लिखी है।

वक्त का थोड़ा सा बदलाव
कितने एहसासों को
जन्म दे देता है,
कितने अनगूंजे, अनकहे स्वर
पुरवाई के आसपास
मंडराने लगते हैं।

ऐसे में यदि बादल का
कोई भीगा स्पर्श
सुबह का आँचल थाम
उठाता है और द्वार पर,
मौसम फुर्सत से आवाज
लगा कर पुकारता है,
तब जैसे दिन के पूरे पृष्ट का
शीर्षक ही बदल जाता है।
शायद ऐसे ही क्षण
बस सार्थक होते हैं,
हमारे निजी होते हैं।

                          - सावित्री परमार