21 फ़रवरी 2012

तीन प्रकार के ऋणों से मुक्त होना जरूरी

बांके बिहारी मंदिर में श्रद्धालुओं को प्रवचन सुनाते हुए पण्डित गोविन्दरामने कहा कि शास्त्रों के अनुसार मनुष्य के लिए तीन प्रकार के ऋणों से मुक्त होना आवश्यक बताया गया है। ये हैं देव ऋण, ऋषि ऋण व पितर ऋण।
पितर ऋण अर्थात उनका ऋण जिन्होंने हमारा लालन-पालन किया व जो हमारे जन्म दाता हैं। अपने पितरोंका श्राद्ध करने के लिए मानव में श्रद्धा होनी चाहिए, आडम्बर नहीं। पण्डित जी ने कहा कि जिन माता-पिता ने हमारी आयु, अरोग्य व सुखोंके लिए कामना की और हर संभव प्रयास किए, उनके ऋण से मुक्त हुए बिना हमारा जीवन व्यर्थ है। उनका ऋण उतारने के लिए मनुष्य जीवन भर अपने माता पिता की सेवा-सुश्रूषा करता रहता है और इसी के तहत मरणोपरांत श्राद्ध कर्म द्वारा पितृ ऋण से मुक्त होने का प्रयास करता है। जब मनुष्य अपनी अंजलि में जल लेकर अपने पूर्वजों का स्मरण करते हुए श्रद्धा भाव से उन्हें जलांजलि अर्पित करता है तो इस कृत्य में उसका समर्पण एवं कृतज्ञता का भाव प्रकट होता है।

जल इसलिए क्योंकि उसे जीवन के लिए आवश्यक और सब जगह सुलभ माना गया है। उन्होंने कहा कि हिन्दु संस्कृति में यह मुख्य विशेषता है कि इसमें तुच्छ व उपेक्षित समझे जाने वाले प्राणियों को भी विशेष महत्व दिया जाता है। अन्य पक्षिओं की उपेक्षा कौवे को तुच्छ समझा जाता है। किन्तु श्राद्ध के समय सबसे पहले उसी को भोग दिया जाता है। हिन्दु धर्म में कौवे और पीपल को पितरोंका प्रतिक माना जाता है। पितृ पक्ष के इन दिनों में कौवे को ग्रास व पीपल को जल देकर पितरोंको तृप्त किया जाता है। श्राद्ध करना जीवन देने वाले व्यक्ति के प्रति श्रद्धा का भाव प्रदर्शित करना है।

शास्त्रों में माना गया है कि हर मरने वाले को शांति नहीं मिलती और न ही तुरंत मोक्ष प्राप्त होता है। पितृ पक्ष में पितरोंकी मोक्ष कामना करना ही श्राद्ध होता है। यह एक सामाजिक धारणा है कि यदि हम अपने पितरोंका श्राद्ध करेंगे तो हमारी आत्मा की शांति के लिए हमारी अगली पीढी भी हमारा श्राद्ध करेगी। साथ ही उन्होंने कहा कि भगवान के अवतारोंका न तो निर्वाण दिवस करते हैं और न ही जीव जंतुओं का श्राद्ध तर्पण किया जाता है।

उन्होंने कहा कि दिवंगतोंकी शांति के लिए किया जाने वाला उपक्रम ही श्राद्ध है। हिन्दु धर्म में इसको श्राद्ध कहा जाता है। इसलाम को मानने वाले मगफिरतकी दुआ करके फतिहापढकर किसी न किसी रूप से अपने पितरोंको याद करते हैं। गरुड परम्परा के अनुसार तो जीवित व्यक्ति भी अपना श्राद्ध कर सकता है। बस शर्त यह है कि उसके बाद कोई उसका वंश चलाने वाला न हो।

1 टिप्पणी:

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