28 सितंबर 2011

चैत्र नवरात्र व्रत के लाभ

हिन्दू संस्कृति के अनुसार नववर्ष का शुभारम्भ चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि से होता है। इस दिन से वसंतकालीन नवरात्र की शुरूआत होती है।
विद्वानों के मतानुसार चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की समाप्ति के साथ भूलोक के परिवेश में एक विशेष परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगता हैं जिसके अनेक स्तर और स्वरुप होते हैं।
इस दौरान ऋतुओं के परिवर्तन के साथ नवरात्रों का त्यौहार मनुष्य के जीवन में बाह्य और आतंरिक परिवर्तन में एक विशेष संतुलन स्थापित करने में सहायक होता हैं। जिस तरह बाह्य जगत में परिवर्तन होता है उसी प्रकार मनुष्य के शरीर में भी परिवर्तन होता है। इस लिए नवरात्र उत्सव को आयोजित करने का उद्देश्य होता हैं की मनुष्य के भीतर में उपयुक्त परिवर्तन कर उसे बाह्य परिवर्तन के अनुरूप बनाकर उसे स्वयं के और प्रकृति के बीच में संतुलन बनाए रखना हैं।

नवरात्रों के दौरान किए जाने वाली पूजा-अर्चना, व्रत इत्यादि से पर्यावरण की शुद्धि होती हैं। उसी के साथ-साथ मनुष्य के शरीर और भावना की भी शुद्धि हो जाती हैं। क्योंकि व्रत-उपवास शरीर को शुद्ध करने का पारंपरिक तरीका हैं जो प्राकृतिक-चिकित्सा का भी एक महत्वपूर्ण तत्व है। यही कारण हैं की विश्व के प्राय: सभी प्रमुख धर्मों में व्रत का महत्व हैं। इसी लिए हिन्दू संस्कृति में युगों-युगों से नवरात्रों के दौरान व्रत करने का विधान हैं। क्योंकि व्रत के माध्यम से प्रथम मनुष्य का शरीर शुद्ध होता हैं, शरीर शुद्ध हो तो मन एवं भावनाएं शुद्ध होती हैं। शरीर की शुद्धी के बिना मन व भाव की शुद्धि संभव नहीं हैं। चैत्र नवरात्रों के दौरान सभी प्रकार के व्रत-उपवास शरीर और मन की शुद्धि में सहायक होते हैं।
नवरात्रों में किये गए व्रत-उपवास का सीधा असर हमारे अच्छे स्वास्थ्य और रोगमुक्ति के लिए भी सहायक होता हैं। बड़ी धूम-धाम से किया गया नवरात्रों का आयोजन हमें सुखानुभूति एवं आनंदानुभूति प्रदान करता हैं।
मनुष्य के लिए आनंद की अवस्था सबसे अच्छी अवस्था हैं। जब व्यक्ति आनंद की अवस्था में होता हैं तो उसके शरीर में तनाव उत्पन्न करने वाले शूक्ष्म कोष समाप्त हो जाते हैं और जो सूक्ष्म कोष उत्सर्जित होते हैं वे हमारे शरीर के लिए अत्यंत लाभदायक होते हैं। जो हमें नई व्याधियों से बचाने के साथ ही रोग होने की दशा में शीघ्र रोगमुक्ति प्रदान करने में भी सहायक होते हैं।
नवरात्र में दुर्गासप्तशती को पढने या सुनाने से देवी अत्यंत प्रसन्न होती हैं ऐसा शास्त्रोक्त वचन हैं सप्तशती का पाठ उसकी मूल भाषा संस्कृति में करने पर ही पूर्ण प्रभावी होता हैं।
व्यक्ति को श्रीदुर्गासप्तशती को भगवती दुर्गा का ही स्वरुप समझना चाहिए। पाठ करने से पूर्व श्रीदुर्गासप्तशती की पुस्तक का इस मंत्र से पंचोपचारपूजन करें- 
नमोदेव्यैमहादेव्यैशिवायैसततंनमः । नमः प्रकृत्यैभद्रायैनियताः प्रणताः स्मताम्॥
 जो व्यक्ति सुर्गासप्तशती के मूल संस्कृत में पाठ करने में असमर्थ हों तो उस व्यक्ति को सप्तश्लोकी दुर्गा को पढने से लाभ प्राप्त होता हैं। क्योंकि सात श्लोकों वाले इस स्त्रोत में श्रीदुर्गासप्तशती का सार समाया हुआ हैं।
जो व्यक्ति सप्तश्लोकी दुर्गा का भी न कर सके वह केवल  मंत्र नर्वाण मंत्र का अधिकाधिक जप करें।

देवी के पूजन के समय इस मंत्र का जप करे।
जयन्ती मड्गलाकाली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधानमोsस्तुते॥

देवी से प्रार्थना करें-
विधेहिदेवि कल्याणंविधेहिपरमांश्रियम्। रूपंदेहिजयंदेहियशोदेहिद्विषोजहि॥

अर्थात: हे देवी! आप मेरा कल्याण करो। मुझे श्रेष्ट संपत्ति प्रदान करो। मुझे रूप दो, जय दो, यश दो और मेरे काम-क्रोध इत्यादि शत्रुओं का नाश करो।
विद्वानों के अनुसार सम्पूर्ण नवरात्रव्रत के पालन में जो लोग असमर्थ हो वह नवरात्र के सात रात्री, पांच रात्री, दो रात्री और एक रात्री का व्रत भी करके लाभ प्राप्त कर सकते हैं। नवरात्र में नवदुर्गा की उपासना करने से नवग्रहों का प्रकोप शांत होता हैं।
 

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