21 जनवरी 2011

अक्सर भगोड़े क्यों होते हैं सन्यासी...?

पहले सन्यासी होने की परिभाषा को समझें...

भगवा वस्त्र धारण किए माथे पर चंदन का लेप लगाए कमंडल और चिमटा थामे, मुख से प्रभु नाम की महिमा का गान करता और प्रवचन अथवा कथा बांचता हर कोई साधु या सन्यासी हो, यह आवश्यक नहीं है। पर उपदेश कुशल बहुतेरे। अर्थात दूसरों को उपदेश देना सबसे आसान काम है। जिन सूत्रों का अनुपालन कभी खुद न किया हो या जिन बातों को खुद ठीक से न समझे हों उन्हे दूसरों को समझाना स्वयं को ही ठगने जैसा है। एक पहुंचे हुए सन्यासी बाबा प्रवचन कर रहे थे। उनके हजारों भक्त पंडाल में एकाग्र चित्त होकर उन्हे सुन रहे थे। बाबा कह रहे थे कि इंसान की प्रवृति चंदन के वृक्ष जैसी होनी चाहिए, कितने भी सर्प चंदन के वृक्ष से क्यों न लिपट जाएं किन्तु चंदन अपनी सुगंध नहीं छोड़ता। ऐसे ही लोगों को धर्म और सत्य का मार्ग कभी नहीं छोड़ना चाहिए, चाहे मार्ग में कितने ही सर्पाकार अवरोध क्यों न आ जाएं। प्रवचन सुनकर लोग अभिभूत हुए जा रहे थे। बाबा लोगों को मोह-माया से दूर हो जाने की सलाह और उपाय भी सुझा रहे थे। बाबा ने यह भी बताया कि सन्यासी होकर कैसे उन्होने सत्य, धर्म और ईश्वर की खोज की है। आध्यात्म का अनुयायी होने की लालसा में बाबा ने वर्षों पहले अपना घर-परिवार छोड़ दिया था। तद्पश्चात पहाड़ों पर जाकर बाबा ने कठोर साधना की। तब कहीं जाकर वह जीवन-मरण और स्वर्ग-नरक के भेद को जान पाए।

अब यदि क्रम से बाबाजी की बातों का विशलेषण किया जाए तो प्रश्न यह उठता है कि सर्पों से लिपटे होने पर भी चंदन बने रहने का पाठ पढ़ाने वाले, चंदन बनने के लिए खुद सांसारिक मोह-माया के सर्पों से क्यों भाग जाते हैं? घर-गृहस्थी के कर्तव्यों से भाग कर पहाड़ों की शरण में तपस्या कर लेना ही क्या सन्यासी हो जाना है? भगोड़ा होकर साधु होना धर्मसंगत कैसे हो सकता है। सच्चा साधु, सच्चा सन्यासी तो वह है जो सांसारिक आपाधापियों के साथ भी अपने हृदय की निर्मलता और अपने सदविचारों की सुदृंढता बनाए रखता है। अपने घर के दरवाजे, खिड़कियां और रौशनदान बंद करके कोई कहे कि वह समाज के झंझावातों से दूर रहता है, वह संसार के पचड़ों से वास्ता नहीं रखता और इसलिए वह एक सभ्य नागरिक होने के साथ स्वच्छ छवि का एकाधिकारी भी है, तो यह उसके मन का भ्रम है। फिर भले ही वह स्वयं को सन्यासी प्रचारित क्यों न करे। सांसारिक भीड़ के मध्य रहकर अपनी काम-वासना, मोह-माया, मन-मस्तिष्क की विसंगतियों एवं चंचल इंद्रियों पर नियत्रंण रखना ही व्यक्ति विशेष को साधु अथवा सन्यासी बनाता है। उसके लिए अपने उत्तरदायित्वों से भागना अनुचित है। धर्म के अतिरिक्त देश, समाज और परिवार के प्रति भी व्यक्ति का दायित्व होता है।

अक्सर कहा जाता है कि पुण्य कर्म करने वालों को स्वर्ग की प्राप्ति होती है और पाप कर्म करने वालों के नरक की। यह कहकर सत्य के मार्ग पर चलने का भ्रम पालने वाले दरअसल असत्य के गर्भ में होते हैं। स्वर्ग-नरक तो मात्र भ्रामक गंतव्य हैं। सब कुछ इसी धरती पर है, स्वर्ग भी, नरक भी। यह स्वर्ग-नरक व्यक्ति के कर्म फलों में परिलक्षित भी होते हैं। ऐसे ही जीवन और मरण में भेद बताने वाले अज्ञानी हैं। जीवन-मरण में कोई भेद नहीं है, दोनों अभेद हैं। जीवन और मरण में तो स्वयं भगवान भी भेद नहीं कर पाए तो फिर यह किसी साधु अथवा सन्यासी के लिए कैसे संभव है?

एक बड़ा सवाल यह भी है कि साधु-सन्यासी को पहचाने कैसे? बद्रीनाथ धाम में मैंने अजब दृश्य देखा। दो साधु एक कुत्ते को डंड़े और तालों से मार रहे थे। कारण पूछा तो पता चला वह कुत्ता उनकी रोटी लेकर भागा था। नित्य धार्मिक अनुष्ठान करने वाले, प्रभु की जय-जयकार करने वाले और जीवन में आए सुख-दुख को, 'होय वही जो राम रच राखा' कहकर संबल देने वाले साधु अगले ही पल अपनी रोटी छिन जाने से व्यथित हो उठे थे। इतने, कि हिंसक हो गए। स्वयं पर विपदा आई तो हर वस्तु और प्राणी में भगवान को देखने का प्रवचन देने वाले साधुओं को कुत्ते में भगवान नहीं दिखे। इस आचरण से एक बार फिर यह सिद्ध हुआ कि कोई व्यक्ति सर्वप्रथम मन से अर्थात हृदय से साधु-सन्यासी होता है, उसके बाद कर्म से साधु-सन्यासी होता है और, सबसे अंत में वचन से साधु-सन्यासी होता है, किन्तु केवल वेशभूषा से वह कदापि साधु-सन्यासी नहीं हो सकता।