15 दिसंबर 2010

वैदिक साहित्य में पुरूषार्थ चतुष्टय

भारतीय विचारकों एवं मनीषियों ने व्यक्ति एवं समाज के उदात्त स्वरुप तथा सर्वाड्गीण विकास के लिये पुरूषार्थों का विधान किया है।
सामान्य रूप में पुरूषार्थ का शाब्दिक अर्थ है 'पुरूषार्रथ्यर्ते इति पुरूषार्थ:' अर्थार्थ पुरूष के द्वारा इष्ट होता है, वही पुरूषार्थ है। पुरूषार्थ शब्द पुरूष एवं अर्थ इन दो शब्दों से मिलकर बना है। पुरूष से तात्पर्य है; विवेकशील प्राणी' और अर्थ से तात्पर्य है 'लक्ष्य'। उक्त लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास जब सचैतान्य किया जाता है, तो यह पुरूषार्थ कहलाता है। ये चार्पुरूशार्थ हैं - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। ये चारों पुरूषार्थ मानव जीवन के आर्थिक, बौद्धिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक आदि विभिन्न पक्षों से सम्बद्ध है। इनमें से अर्थ और काम प्रवृत्ति मूलक पुरूषार्थ हैं। मोक्ष निवृत्ति मूलक पुरूषार्थ है एवं धर्म प्रवृत्ति-निव्रत्तिमूलक पुरूषार्थ है अर्थात धर्म ही एकमात्र ऐसा पुरूषार्थ है, जो संसार में प्रवृत्त कराते हुए मोक्ष की ओर प्रेरित कर्ता है। इससे भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों उन्नति सम्भव है।
हमारा वैदिक साहित्य उक्त चारों पुरुषार्थों के विषय में क्या कहता है - इस विषय को प्रस्तुत करना ही इस शोध लेक का उद्देश्य है।

धर्म 
सामाजिक एवम पार्लौकित दोनों की दृष्टियों से धर्म को परम पुरूषार्थ माना गया है। बिना धर्म के तो सुव्यवस्थित समाज का निर्माण हो सकता है और न पारलौकिक सुख की प्राप्ति हो सकती है। अतः कहा गया है कि 'यतोsभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि स धर्म:।'
'धर्म शब्द का अर्थ बहुत विस्तृत एवं व्यापक है। धर्म शब्द का सबसे व्यापक अर्थ उसके व्याकरंगत मूल धातु 'धृञ्' पर आश्रित है। जिसका शाब्दिक अर्थ है - धारण करना. अतः धर्म उन सब नियमों एवं वावास्थाओं का नाम है, जो समाज और व्यक्ति को धारण करती है।

वस्तुतः देखा जाए तो धर्म मानव की अनवारी आवश्यकता है। आज समाज में जो हिंसा, क्रूरता, क्रोध, अहंकार, परस्पर ईर्ष्या एवं वैचारिक भिन्नता के बाव पनप रहे हैं उसका एक कारण हमारे धर्म विमुखता भी है। धर्म, कर्म के अभाव में हम अपने नैतिक मूल्य छोड़ते जा रहे हैं। अतः हमें आवश्यकता है स्वहित की भावना के ऊपर उठकर सर्वहित की भावना अपने मन में विकसित करने कि तथा वेदोक्त धर्म को समझने की, क्योंकि ऋग्वेद में धर्म का प्रयोग विश्व को धारण करने के अर्थ में हुआ है।

धर्म का उद्देश्य समाज को संतुलन में रखना है। यह संतुलन तभी रह सकता है। जब हम अपनी वैचारिक संकीर्णताओं को छोड़कर प्राणिमात्र को ईश्वर की सृष्टि समझ कर सबके प्रति समानता का व्यवहार करें तथा परस्पर मिलकर अपने कर्तव्य का पालन करें। इसी उदात भावना का उल्लेख हमें ऋग्वेद के अंतिम मंडल से प्राप्त होता है--
संगच्छध्वं संवदध्वं संवै मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथापूर्वे संजानाना उपासते ॥ 

समानो मंत्र: समिति: समानी, समानं मन: सहचित्तमेषाम् ।
समानं मंत्रमभिमन्त्रये व: समानेन वो हविषा जुहोमि ।
                                  ऋ. 10.191.3

वैदिक धर्म की पहचान हेतु मनु ने अपने ग्रन्थ मनुस्मृति में वैदिक धर्म के दस लक्षण बताते हुए कहा है---
धृति: क्षमा दमोsस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्वीघा सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥
                                                  मनु. 6.91
अर्थात धैर्य, क्षमा, दं, असते, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य एवं क्रोध न करना, ये धर्म के दस लक्षण हैं, जिन्हें ऋग्वेद के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है --
1. धृति --- धृति अर्थात धैर्य से तात्पर्य है मानव का सुख-दुःख, सफलता-असफलता, गरीबी-अमीरी आदि द्वंद्वात्मक अवस्थाओं में भी विचलित न होना। ऋग्वेद में धीर पुरूषों के द्वारा ही सफलता का विधान किया गया है -- धीरा इच्छेकुर्धरूणेष्वारभम्।

2. क्षमा - क्षमा को भी वैदिक धर्म का लक्षण माना गया है. अपने प्रति किसी व्यक्ति द्वारा भूल या अज्ञानतावश किये गए अपराधों के लिये क्षमा करने की भावना धर्म का लक्षण होती है, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में प्राप्त होता है.

3. दम - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आदि आतंरिक शत्रुओं का दमन कर आत्म संयम रखना कहलाता है. इस संबंध में उल्लेख मिलता है - योग्निं तत्वो दमे देवं मर्त सपयर्ति। तस्मा इद्दीयद् वसु॥ अर्थात जो साधक मन को वशीभूत करके उपासना में निरत होता है, उसके समक्ष वासवी शक्तियां प्रदीप्त हो उठाती हैं.

4. असते - दूसरों के अधिकार, संपत्ति एवं परिक्श्रम की चोरी न करना असते कहलाता है. चोरी नैतिक अपराध है. ऋग्वेद उसके नाश की प्रार्थना कर्ता है.

5. शुद्ध - बाह्य एवं आतंरिक पवित्रता एवं स्वच्छता शौच कहलाती है. ऋग्वेद मानसिक शुद्धि पर ज्यादा जोर देता है, क्योंकि वहां परमात्मा से भावों को पवित्र बनाने के लिये खा गया है.

6. इन्द्रिय निग्रह - पञ्च ज्ञानेन्द्रियों एवं पञ्च कर्मेन्द्रियों को नियंत्रण में रखकर उन्हें कुत्सित विषयों से हटाकर सद्विश्यों में लगाना इन्द्रिय निग्रह है. वेदों में अच्छा देखें, अच्छा सुने आदि के भाव परिलक्षित होते हैं.

7. धी:  - 'धी:' शब्द का शाब्दिक अर्हत है 'बुद्धि', अर्थात हमें बुद्धि और विवेक के सहारे ही सत्य-असत्य, पाप-पुण्य आदि का विचार कर धर्माचरण करना चाहिए. ऋग्वेद में भी 'धियो यो नः  प्रचोदयात अर्थात ईश्वर हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर लगाए, जैसी भावनाएं प्राप्त होती हैं.

8. विद्या - अविद्या का नाश या विद्या की प्राप्ति धर्म का साधन है. वेदानुसार विद्या मनुष्यों की बुद्धि को प्रकाशित करती है. महोअर्ण - धियो विश्वा विराजति।
 9. सत्य - सत्याचरण धर्म का प्रमुख लक्षण है, इसलिए सत्य का ग्रहण एवं असत्य का त्याग धर्म का लक्षण माना है. वेद में इसे ऋत भी कहा गयाः है. ऋग्वेद के अनुसार राष्ट्र की प्रतिष्ठा का आधार ऋत ही है. "


10. आक्रोश - राग द्वेशादी के वशीभूत होकर किसी पर क्रोध न करना धर्म का दसवां लक्षण है 'उलूकयांतु शुशुलूकयातुं' के माध्यम से उल्लू, भेदिये आदि की वृत्ति को त्यागने का आदेश दिया गया है.
धर्म को आधार बनाकर न केवल ऋग्वेद में अपितु यजुर्वेद, अथर्वेद एवं उपनिषद ग्रंथों में भी प्रचुर ज्ञान प्राप्त होता है. मनुष्य की व्यक्तिगत और सामजिक उन्नति एवं व्यवस्था को बनाए रखें एक उद्देश्य से यजुर्वेद कहता है कि किसी के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और न किसी के धन का लालच करना चाहिए.
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किज्च् जगत्याञ्जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा: मागृध: कस्यस्विद्धनम्॥

वाजसनेयी संहिता में धर्म निश्चित नियम और आचरण नियम अर्थों में प्रयुक्त हुआ है.
अथर्वेद में धर्म शब्द का प्रयोग धार्मिक क्रिया एवं संस्कार से अर्जित गुण के अर्हत में प्रयुक्त हुआ है. इसके अतिरिक्त अथर्वेद से ही हमें विविध मानवीय धर्मों की भी शिक्षा प्राप्त होती है.
छान्दोग्योपनिषद में सबके प्रति उद्दार विचार रखना, किसी से भी अशिष्ट व्यवहार न करना, विद्वानों का अनादर न करना जैसे उदात्त भावों का उल्लेख धर्म के रूप में मिलता है.
धर्म का हमारे जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष से सीधा संबंध है, जैसा कि कहा भी है.
धर्म करत संसार सुख, धर्म करत निर्वाण।
धर्म पंथ साधे बिना, नर तिर्यंच समान॥

इस प्रकार वैदिक धर्म मानव समाज की शारीरिक, मानसिक, आर्थिक एवं सामाजिक उन्नति कर उसे सुख, शांति एवं परमानंद प्राप्ति कराने वाले कर्मों का नाम है.

अर्थ
जीवन का द्वितीय पुरूषार्थ अर्थ धन और भौतिक कल्याण से सम्बंधित है. अर्थ से अभिप्राय है विद्या और क्षमता के अनुसार परिक्श्रम से धन प्राप्ति और धर्म के अनुसार उसका उपयोग एवं उपभोग.
अर्थ से तात्पर्य धन-संपदा के साथ-साथ प्रयोजनादी भी लिया गया है. श्रुतियां भी अर्थ का निषेध नहीं करती है. इसी कारण ब्रह्मा, विष्णु भी हिरण्यगर्भ और लक्ष्मीश होते हुए भी श्रेष्ट रूप को धारण करते हैं.
वेद में कहा गया है कि वैदिक आर्य


काम
मानव जीवन को उदात्त एवं संयमित बनाने के लिये काम रूप तीसरे पुरूषार्थ की स्थापना की गई. काम एक जैविक प्रवृत्ति है जो मानव स्वभाव में प्रधान होती है. यदि मनुष्य को उसके संवेगात्मक जीवन से वंचित कर दिया जाए तो वह जंगलियों के समान आचरण करने लगेगा. यह स्थिति उसके शारीरिक एवम मानसिक स्वास्थ्य के लिये लाभकारी नहीं होती. अतः काम मानावे जीवन हेतु अनिवार्य पुरूषार्थ है जिसकी पूर्ती के लिये हमारी संस्कृति में गृहस्थाश्रम का विधान किया गया है. काम का सामान्य अर्हत उन सब इच्छाओं से है जिनकी पूर्ती करके मनुष्य सांसारिक सुख प्राप्त कर्ता है. काम के माध्यम से मनुष्य की सौन्दर्य प्रियता की प्रत्ति तुष्ट होती है.वस्तुतः देखा जाए तो काम और अर्थ साधन हैं, साध्य नहीं.
वेदों में काम को सारी सृष्टि का मूल कहा गया है. ऋग्वेद में इसे मन का प्रथम तेतास कहा गया है जो आरम्भ से ही विद्यमान था.
ऋग्वेद में काम के माध्यम से'बहु स्याम बहु प्रजायेयम' इस रूप में आत विस्तार की कामना की गई है. वेद के अनुसार पति-पत्नी को एवं संयमशील विद्वान् को उपयुक्त अवस्था में काम भाव प्राप्त होता है. ऋग्वेद का अगस्त्य - लोपामुद्रा आख्यान भी काम रूप पुरूषार्थ को पुष्ट करता है.
हमारा प्रथम पुरूषार्थ धर्म है, परन्तु उपनिषदों के अनुसार धर्मपालन के लिये संतति आवश्यक थी. यही कारण था कि गृहस्थाश्रम को सर्व आश्रमों में श्रेष्ठ आश्रम माना है. स्नातक बने सिष्य को उपदेश देते हुए आचार्य स्पष्ट रूप में कहते हैं कि प्रजा रूपी तंतु को कभी विचिन्न मत करना. बृहदारणयकोपनिषद में स्पष्ट उल्लिखित है कि जैसे कोई अपनी प्रिय पत्नी से मिलते हुए बाहर के जगत में कुछ नहीं जानता और न आतंरिक जगत को ही जानता है, उसी प्रकार प्राग्य आत्मा से जुडा हुआ पुरूष न बाहर की वास्तु जानता है और न ही अंदर की किसी वास्तु को.
बृहदारणयक उपनिषद में रति को सबसे बड़ा आनंद माना है एवं उसे ब्रह्मानंद सहोदर कहा है.

मोक्ष

14 दिसंबर 2010

पितरों का श्राद्ध आवश्यक है

पितरों की संतुष्टि के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक किये जाने वाले तर्पर्ण, ब्राह्मण भोजन, दान आदि कर्मों को श्राद्ध कहा जाता है. इसे पितृयज्ञ भी कहते हैं. श्राद्ध के द्वारा व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है और पितरों को संतुष्ट करके स्वयं की मुक्ति के मार्ग पर बढ़ता है.

श्राद्ध के प्रकार
शास्त्रों में श्राद्ध के निम्नलिखित प्रकार बताये गए हैं -

1.    नित्य श्राद्ध : वे श्राद्ध जो नित्य-प्रतिदिन किये जाते हैं, उन्हें नित्य श्राद्ध कहते हैं. इसमें विश्वदेव नहीं होते हैं.
2.    नैमित्तिक या एकोदिष्ट श्राद्ध : वह श्राद्ध जो केवल एक व्यक्ति के उद्देश्य से किया जाता है. यह भी विश्वदेव रहित होता है. इसमें आवाहन तथा अग्रौकरण की क्रिया नहीं होती है. एक पिण्ड, एक अर्ध्य, एक पवित्रक होता है.
3.    काम्य श्राद्ध : वह श्राद्ध जो किसी कामना की पूर्ती के उद्देश्य से किया जाए, काम्य श्राद्ध कहलाता है.
4.    वृद्धि (नान्दी) श्राद्ध : मांगलिक कार्यों ( पुत्रजन्म, विवाह आदि कार्य) में जो श्राद्ध किया जाता है, उसे वृद्धि श्राद्ध या नान्दी श्राद्ध कहते हैं.
5.     पावर्ण श्राद्ध : पावर्ण श्राद्ध वे हैं जो आश्विन मास के पितृपक्ष, प्रत्येक मास की अमावस्या आदि पर किये जाते हैं. ये विश्वदेव सहित श्राद्ध हैं.
6.    सपिण्डन श्राद्ध : वह श्राद्ध जिसमें प्रेत-पिंड का पितृ पिंडों में सम्मलेन किया जाता है, उसे सपिण्डन श्राद्ध कहा जाता है.
7.    गोष्ठी श्राद्ध : सामूहिक रूप से जो श्राद्ध किया जाता है, उसे गोष्ठीश्राद्ध कहते हैं.
8.    शुद्धयर्थ श्राद्ध : शुद्धयर्थ श्राद्ध वे हैं, जो शुद्धि के उद्देश्य से किये जाते हैं.
9.    कर्मांग श्राद्ध : कर्मांग श्राद्ध वे हैं, जो षोडश संस्कारों में किये जाते हैं.
10.    दैविक श्राद्ध : देवताओं की संतुष्टि की संतुष्टि के उद्देश्य से जो श्राद्ध किये जाते हैं, उन्हें दैविक श्राद्ध कहते हैं.
11.    यात्रार्थ श्राद्ध : यात्रा के उद्देश्य से जो श्राद्ध किया जाता है, उसे यात्रार्थ कहते हैं.
12.    पुष्टयर्थ श्राद्ध : शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक पुष्टता के लिये जो श्राद्ध किये जाते हैं, उन्हें पुष्टयर्थ श्राद्ध कहते हैं.
13.    श्रौत-स्मार्त श्राद्ध : पिण्डपितृयाग को श्रौत श्राद्ध कहते हैं, जबकि एकोदिष्ट, पावर्ण, यात्रार्थ, कर्मांग आदि श्राद्ध स्मार्त श्राद्ध कहलाते हैं.

कब किया जाता है श्राद्ध?
श्राद्ध की महत्ता को स्पष्ट करने से पूर्व यह जानना भी आवश्यक है की श्राद्ध कब किया जाता है. इस संबंध में शास्त्रों में श्राद्ध किये जाने के निम्नलिखित अवसर बताये गए हैं -
1.   आश्विन मास के पितृपक्ष के 16 दिन.
2.   वर्ष की 12 अमावास्याएं तथा अधिक मास की अमावस्या.
3.   वर्ष की 12 संक्रांतियां.
4.   वर्ष में 4 युगादी तिथियाँ.
5.   वर्ष में 14 मन्वादी तिथियाँ.
6.   वर्ष में 12 वैध्रति योग
7.   वर्ष में 12 व्यतिपात योग.
8.   पांच अष्टका.
9.   पांच अन्वष्टका
10.   पांच पूर्वेघु.
11.   तीन नक्षत्र: रोहिणी, आर्द्रा, मघा.
12.   एक कारण : विष्टि.
13.   दो तिथियाँ : अष्टमी और सप्तमी.
14.   ग्रहण : सूर्य एवं चन्द्र ग्रहण.
15.   मृत्यु या क्षय तिथि.

क्यों आवश्यक है श्राद्ध?
श्राद्धकर्म क्यों आवश्यक है, इस संबंध में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं -
1.    श्राद्ध पितृ ऋण से मुक्ति का माध्यम है.
2.    श्राद्ध पितरों की संतुष्टि के लिये आवश्यक है.
3.    महर्षि सुमन्तु के अनुसार श्राद्ध करने से श्राद्धकर्ता का कल्याण होता है.
4.    मार्कंडेय पुराण के अनुसार श्राद्ध से संतुष्ट होकर पितर श्राद्धकर्ता को दीर्घायु, संतति, धन, विघ्या, सभी प्रकार के सुख और मरणोपरांत स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करते हैं.
5.    अत्री संहिता के अनुसार श्राद्धकर्ता परमगति को प्राप्त होता है.
6.    यदि श्राद्ध नहीं किया जाता है, तो पितरों को बड़ा ही दुःख होता है.
7.    ब्रह्मपुराण में उल्लेख है की यदि श्राद्ध नहीं किया जाता है, तो पितर श्राद्ध करने वाले व्यक्ति को शाप देते हैं और उसका रक्त चूसते हैं. शाप के कारण वह वंशहीन हो जाता अर्थात वह पुत्र रहित हो जाता है, उसे जीवनभर कष्ट झेलना पड़ता है, घर में बीमारी बनी रहती है.

श्राद्ध-कर्म शास्त्रोक्त विधि से ही करें 
श्राद्ध कर्म को शास्त्रोक्त विधि से ही करना चाहिए. शास्त्रों में दिए गए नियमों का पूर्णतः पालन होना चाहिए, तभी श्राद्ध कर्म अपने उद्देश्य की पूर्ती कर पाते हैं. महाभारत के अनुशासन पर्व में इस संबंध में एक आख्यान मिलता है. भीष्म अपने पिता शांतनु का श्राद्ध करने के लिये हरिद्वार गए. वहां उन्होंने कई सिद्ध ऋषियों को बुलाकर श्राद्ध कर्म आरम्भ किया. एकाग्रचित होकर उन्होंने जैसे ही विधिवत पिंडदान देना आरम्भ किया, तो पिण्डदान देने के लिये पिण्ड वेदी पर जो कुश बिछाए गए थे, उनमें से एक हाथ निकलकर बाहर आया. यह हाथ भीष में पिता शांतनु का था. शांतनु स्वयं अपने निमित्त पिण्ड का दाल लेने के लिये उपस्थित हो गए थे. ज्ञानी पुरूष भीष्म ने पिण्ड का दान उनके हाथ में न करके इस हेतु बनाई गयी वेदी के ऊपर रखे कुशों पर किया, क्योंकि शास्त्रों में यही कहा गया है की कुशों पर पिण्डदान करें -- 'पिण्डो देयः कुशोष्वीति.' ऐसी करने पर शांतनु का हाथ अदृश्य हो गया. भीष्म ने विधिवत श्राद्ध कर्म पूर्ण किया और वापस लौट आए. रात्री में शांतनु ने भीष्म को स्वप्न दिया और प्रसन्नतापूर्वक कहा की 'भारत श्रेष्ठ! तुम शास्त्रीय सिद्धांत पर दृढतापूर्वक डटे हुए हो, हम इससे बहुत प्रसन्न हैं, तुम त्रिकालदर्शी होओ और अंत में तुम्हें भगवान् विष्णु की प्राप्ति ही, साथ ही जब तुम्हारी इच्छा हो, तभी मृत्यु तुम्हारा स्पर्श करे.' ऐसा आशीर्वाद देकर शांतनु ने परम मुक्ति प्राप्त की और पितामह भीष्म को भी पितरों की भक्ति का फल प्राप्त हुआ. कहने का तात्पर्य यही है की श्राद्धों को शास्त्रोक्त विधि के अनुरूप हेए करना चाहिए.

श्राद्ध के लिये ज्ञातव्य बातें ... ...
1.    श्राद्ध की सम्पूर्ण प्रक्रिया दक्षिण की ओर मुंह करके तथा अपसव्य (जनेऊ को दाहिने कंधे पर डालकर बाएं हाथ के नीचे कर लेने की स्थिति) होकर की जाती है.
2.    श्राद्ध में दूध, गंगाजल, मधु, तसर का कपड़ा, दोहित्र, कुतप, कृष्ण तिल और कुश ये आठ बड़े महत्व के प्रयोजनीय हैं.
3.    श्राद्ध में पितरों को भोजन सामग्री देने के लिये हाथ से बने हुए मिटटी के (चाक से बने हुए न हों और कच्चे हों) बर्तनों का प्रयोग करना चाहिए. मिट्टी के बने हुए बर्तनों के अलावा लकड़ी के बर्तन, पत्तों के दोने (केले के पत्ते का नहीं हों) का भी प्रयोग किया जा सकता है.
4.    श्राद्ध में पितरों को भोजन सामग्री देने के लिये चांदी के बर्तनों का महत्व विशेष है. सोने, ताम्बे और कांसे के बर्तन भी ग्राह्य हैं. इसमें लोहे के बर्तनों का कदापि प्रयोग न करें.
5.    श्राद्ध में सफ़ेद पुष्पों का प्रयोग करना चाहिए. कमल का भी प्रयोग किया जा सकता है. श्राद्ध में कदंब, देवड़ा, मौलश्री, बेलपत्र, करवीर, लाल तथा काले रंग के पुष्प, तीक्ष्ण गंध वाले पुष्प आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिए.
6.    श्राद्ध में तुलसीदल का प्रयोग आवश्यक है.
7.   श्राद्ध में गाय के दूध एवं उससे बनी हुई वस्तुएँ, जौ, धान, तिल, गेहूं, मूंग, आम, बेल, अनार, आंवला, खीर, नारियल, फालसा, नारंगी, खजूर, अंगूर, चिरौंजी, बेर, इन्द्रजौ, मटर, कचनार, सरसों, सरसों का तेल, तिल्ली का तेल आदि का प्रयोग करना चाहिए. श्राद्ध में उरद, मसूर, अरहर, गाजर, गोल लौकी, बैंगन, शलजम, हींग, प्याज, लहसुन, काला नमक, काला जीरा, सिंघाड़ा, जामुन, पिप्पली, सुपारी, कुलथी, कैथ, महुआ, अलसी, पीली सरसों, चना, मांस, अंडा आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिए.
8.    श्राद्ध बिना आसन के नहीं करना चाहिए. आसन में भी कुश, तृण, काष्ठ (लोहे की कील लगी हुए ना हो), ऊन, रेशम के आसन प्रशस्त हैं. 
9.    श्राद्ध में भोजन करने वाले ब्राह्मण को भोजन करते समय आवश्यक रूप से मौन रहना चाहिए.
10.    श्राद्ध में निमंत्रित ब्राह्मण को भोजन कराने से पूर्व उनको बिठाकर श्रद्धापूर्वक उनके पैर धोने चाहिए.
11.    श्राद्धकर्ता को श्राद्ध के दिन दातुन, पान का सेवन, शरीर पर तेल की मालिश, उपवास, स्त्री संभोग, दवाई का सेवन, दूसरे का भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए.
12.    श्राद्ध के दिन भोजन करने वाले ब्राह्मण को पुनर्भोजन (दुबारा खाना), यात्रा, भार ढोना,शारीरिक परिक्श्रम करना, मैथुन, दान, प्रतिग्रह तथा होम नहीं करना चाहिए.
13.    श्राद्ध में श्रीखण्ड, सफ़ेद चन्दन, खस, गोपीचन्दन का ही प्रयोग करना चाहिए. श्राद्ध में कस्तूरी, रक्त चन्दन, गोरोचन आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिए.
14.    श्राद्ध में अग्नि पर अकेले घी नहीं डालना चाहिए.
15.    निर्धनता की स्थिति में केवल शाक से श्राद्ध करना चाहिए. यदि शाक भी न हो, तो घास काटकर गाय को खिला देने से श्राद्ध सम्पन्न हो जाता है. यदि किसी कारणवश घास भी उपलब्ध न हो, तो किसी एकांत स्थान पर जाकर श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक अपने हाथों को ऊपर उठाते हुए पितरों से प्रार्थना करें-
न मेsस्ति वित्तं न धनं नान्यच्छ्राद्धोपयोग्यं स्वपितृन्नोsस्मि।
तृष्यन्तु भक्त्या पितरो मयैतौ कृतौ भुजौ वत्मर्नि मारूतस्य!!

हे मेरे पितृगण! मेरे पास श्राद्ध के उपयुक्त न तो धन है, न धान्य आदि. हाँ, मेरे पास आपके लिये श्रद्धा और भक्ति है. मैं इन्हीं के द्वारा आपको तृप्त करना चाहता हूँ. आप तृप्त हो जाएं. मैनें दोनों भुजाओं को आकाश में उठा रखा है.
16.    गया, पुष्कर, प्रयाग, हरिद्वार आदि तीर्थों में श्राद्ध किये जाने का विशेष महत्व है.
17.    श्राद्ध ऐसी भूमि पर किया जाना चाहिए जिसका ढाल दक्षिण दिशा की ओर हो.
18.    पितरों के उद्देश्य से किये जाने वाले दान में -- गाय, भूमि, तिल, सोना, घी, वस्त्र, धान्य, गुड, चांदी तथा नमक में से एक या अधिक या सभी वस्तुएँ होनी चाहिए. इस सभी वस्तुओं का दान इस महादान कहलाता है.
19.    धान्य में सप्तधान्य देने का विधान भी है. सप्तधान्य में जौ, गेहूं (कंगनी), धान, तिल, टांगुन(मूंग), सांवा और चना होता है.
20.    मृत्यु के समय जो तिथि होती है, उसे ही मरण तिथि माना जाता है और श्राद्ध उसी तिथि को करना चाहिए. मरण तिथि के निर्धारण में सूर्यदयकालीन तिथि ग्राह्य नहीं है.
21.    अर्ध्यप्रदान करने के बाद एकोदिष्ट श्राद्ध में पात्र को सीधा रखना चाहिए, जबकि पार्वण श्राद्ध में उलटा रखना चाहिए.
22.    पति के रहते मृत नारी के श्राद्ध में ब्राह्मण के साथ सौभाग्यवती ब्राह्मणी को भी भोजन कराना चाहिए.
23.    श्राद्ध के समय श्राद्ध कर्ता को पवित्री धारण अवश्य करनी चाहिए.

12 दिसंबर 2010

भगवान गणेश के विभिन्न अवतार

1. महोत्कट विनायक 
कृतयुग में भगवान गणपति 'महोत्कट विनायक' के नाम से प्रख्यात हुए. अपने महान उत्कट ओजशक्ति के कारण वे 'महोत्कट' नाम से विख्यात हुए. उन महातेजस्वी प्रभु के दस भुजाएं थीं, उनका वाहन सिंह था, वे तेजोमय थे. उन्होंने देवांतक तथा नरान्तक आदि प्रमुख दैत्यों के संत्रास से संत्रस्त देव, ऋषि-मुनि, मनुष्यों तथा समस्त प्राणियों को भयमुक्त किया. देवान्तक से हुए युद्ध में वे द्विदन्ती से एकदन्ती हो गए.

2. मयूरेश्वर
त्रेतायुग में महाबली सिन्धु के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिये भगवान् ने मयूरेश्वर के रूप में अवतार लिया. यह अवतार भाद्रपदशुक्ला चतुर्थी को अभिजित मुहूर्त में हुआ था. इस अवतार में गणेश माता पार्वती के यहाँ अवतरित हुए थे. इस अवतार में गणेशजी के षडभुजा थीं, उनके चरण कमलों में छत्र, अंकुश एवं ऊर्ध्व रेखायुकृत कमल आदि चिन्ह थे. उनका नाम मयूरेश पडा. मयूरेश रूप में भगवान् गणेश ने बकासुर, नूतन, कमालासुर, सिन्धु एवं पुत्रों और उसकी अक्षोहिणी सेना को मार गिराया तथा देवता, मनुष्य आदि को दैत्यों के भय से मुक्त कराया.

3. श्री गजानन
द्वापर युग में राजा वरेण्य के यहाँ भगवान् गणेश गजानन रूप में अवतरित हुए. वे चतुर्भुजी थे. नासिका के स्थान सूंड सुशोभित थी. मस्तक पर चन्द्रमा तथा ह्रदय पर चिन्तामणि दीप्तिमान थी. वे दिव्य गंध तथा दिव्य वस्त्राभारणों से अलंकृत थे. उनका उदार विशाल एवं उन्नत था, हाथ-पाँव छोटे-छोटे और कर्ण शूर्पाकार थे. आँखें छोटी-छोटी थीं, ऐसा विलक्षण मनोरम रूप था गजानन जी का. इस अवतार में भगवान् गणेश ने सिन्दूर नामक दानव को उसकी सेना सहित परास्त किया था और सिन्दूर को युद्ध भूमि में मार डाला. उस समय क्रुद्ध गजानन ने उस सिन्दूर का रक्त अपने दिव्य अंगों पर पोत लिया. तभी से वे सिंदूरहा, सिन्दूरप्रिय तथा सिन्दूरवदन कहलाये.

4. श्री धूम्रकेतु
श्री गणेश जी का कलियुगीय भावी अवतार धूम्रकेतु के नाम से विख्यात होगा. कलि के अंत में घोर पापाचार बढ़ जाने पर, वर्णाश्रम धर्म की मर्यादा नष्ट हो जाने पर, देवताओं की प्रार्थना पर सदधर्म के पुनः स्थापन के लिये वे इस पृथ्वी पर अवतरित होंगे और कलि का विनाश कर सतयुग की अवतारना करेंगे.

पूर्व में गणेशपुराण में वर्णित भगवान् के चार लीलावतारों का स्वल्प परिचय दिया गया है. आगे मुद्गलपुराण पर आधारित गणेश जी के अनंत अवतारों में से मुख्य आठ अवतारों का यहाँ स्थानाभाव के कारण नामोल्लेख मात्र किया जा रहा है -

1.  वक्रतुंग - इनका वाहन सिंह है तथा ये मत्सरासुर के हंता हैं.
2.  एकदन्त - ये मूषकवाहन एवं मदासुर के नाशक हैं.
3.  महोदर - इनका वाहन मूषक है, ये ज्ञानदाता तथा मोहासुर के नाशक हैं.
4.  गजानन - इनका वाहन मूषक है, ये सान्ख्यों को सिद्धि देने वाले एवं लोभासुर के हंता हैं.
5.  लम्बोदर - इनका वाहन मूषक है तथा ये क्रोधासुर का विनाश करने वाले हैं.
6.  विकट - इनका वाहन मयूर है तथा ये कामसुर के प्रहर्ता है.
7.  विध्नराज - इनका वाहन शेष है और ये ममासुर के प्रहर्ता है. 
8.  धूम्रवर्ण - इनका वाहन मूषक है तथा ये अहंतासुर के नाशक हैं.

गणपति के विभिन्न स्वरुप 
बालगणपति  - रक्तवर्ण, चतुर्हस्त
 तरूणगणपति- रक्तवर्ण, अस्टहस्त
भक्तगणपति - श्वेतवर्ण, चतुर्हस्त
वीरगणपति - रक्तवर्ण, दशभुज
शक्तिगणपति - सिन्दूरवर्ण, चतुर्भुज
द्विजगणपति - शुभ्रवर्ण, चतुर्भुज
सिद्धगणपति - पिंगलवर्ण, चतुर्भुज
विध्नगणपति - स्वर्णवर्ण, दशभुज
क्षिप्रगणपति - रक्तवर्ण, चतुर्हस्त
हेरम्बगणपति - गौरवर्ण, अस्टहस्त, पंचमातंगमुख, सिंहवाहन 
लक्ष्मीगणपति - गौरवर्ण, दशभुज
महागणपति - रक्तवर्ण, दशभुज
विजयगणपति - रक्तवर्ण, चतुर्हस्त
नृत्तगणपति - पीतवर्ण, चतुर्हस्त
ऊर्ध्वगणपति - कनकवर्ण , षड्भुज
एकाक्षरगणपति - रक्तवर्ण, चतुर्भुज
वरगणपति - रक्तवर्ण, चतुर्हस्त
त्रयक्षगणपति - स्वर्णवर्ण, चतुर्बाहू
क्षिप्रप्रसादगणपति - रक्तचंदनाडिकत, षड्भुज
हरीद्वागणपति - हरिद्वर्ण, चतुर्भुज
एकदंतगणपति - श्यामवर्ण, चतुर्भुज 
सृष्टिगणपति - रक्तवर्ण, चतुर्भुज
उद्दण्डगणपति - रक्तवर्ण, द्वादशभुज
ऋणमोचनगणपति - शुक्लवर्ण, चतुर्भुज
ढुण्ढिगणपति - रक्तवर्ण, चतुर्भुज
द्विमुखगणपति - हरिद्वर्ण, चतुर्भुज
त्रिमुखगणपति - रक्तवर्ण, षड्भुज
सिंहगणपति - श्वेतवर्ण, अष्टभुज
योगगणपति - रक्तवर्ण, चतुर्भुज
दुर्गागणपति - कनकवर्ण , अस्टहस्त
संकष्टहरणगणपति - रक्तवर्ण, चतुर्भुज