15 सितंबर 2010

नैमिषारण्य का सत्संग ( Naimisharanya's Satsang )

र्म भूमि नैमिषारण्य में सभी संतों का समागम हुआ । आर्यावत के मुनि, विद्वान, शास्त्रों के ज्ञाता उपस्थित थे । महामुनि और सभी शास्त्रों में पारंगत शौनक जी ने वहां उपस्थित सूतजी से कहा, हे सूतजी, आपने हमें अत्यन्त श्रेष्ठ तथा आख्यान सुनाये है । हम आपके आभारी है, कि आपके द्वारा हमें अनेक भरतवंशी राजाओं, देवताओं, दानवों, गंधर्वों, सर्पों, राक्षसों, दैत्यों, सिद्वों, यक्षों के अदभुत कर्मों तथा धर्म का पालन करने वाले अत्यन्त श्रेष्ठ जीवन और चरित्रों का वर्णन प्राप्त हुआ । आपकी मधुर वाणी से हमने अनेक पुराण भी सुनें । आपकी सुधामय वाणी बड़ा सुख देने वाली है । शौनक जी की इस बात का समर्थन वहां उपस्थित सभी लोगों ने हर्ष ध्वनि के साथ किया । शौनक जी बोले, हे मुनिवर आपने कुरुवंशियों की सारी कथा कही, पर वृष्णि और अंधक वंशों के बारे में कुछ नहीं बतलाया । आप कृपापूर्वक इन सबका विवरण सुनायें ।

इस पर सूतजी अत्यन्त प्रसन्नता के साथ बोले, मुनिवरो, व्यास जी के शिष्य धर्मात्मा जनमेजय ने जो प्रश्न वृष्णि वंश के बारे में किये थे, उन्हीं के अनुसार वृष्णि वंश की कथा मैं आप सबको सुनाता हूँ । अत्यन्त मेधावी तेजस्वी भरतंवशी राजा जनमेजय ने भरतवंश के इतिहास को पूर्णरुप से श्रवण कर वैशम्पायन से ज्ञान प्राप्त किया था, वही वृतान्त आप लोगों को सुनाता हूँ ।

पुराणों को श्रवण करने से प्रतीत होता है, पांडव और वृष्णि वंशियों का कुल एक ही था । वंशावलि वर्णन में निपुण तथा प्रत्यक्षदर्शी वैशम्पायन ने राजा जनमेजय को बतलाया, जो अव्यक्त कारण, नित्य सदस दामक एवं प्रधान पुरुष है, उसी से इस ईश्वरमय जगत की उत्पत्ति हुई है । उसी अव्यक्त पुरुष को अभि्न तेज सम्पन्न, सब जीवों का सृष्टा और नारायण-परायण समझो । उसी महान ब्रहृ से अहंकार उत्पन्न हुआ । सूक्ष्म जीवों से पंचतत्व और जरायुज आदि चार प्रकार के जीवों की उत्पत्ति हुई । इसी को सनातन सृष्टि कहते है ।

भगवान ने सूक्ष्म भूतों को प्रकट कर अनेक प्रकार की भौतिक प्रजा उत्पन्न करने के विचार से, सबसे पहले जल का निर्माण किया । फिर उसमें अपना वीर्य डाला । जल को नीर कहा गया है, यह जल नीर की उत्पत्ति का कारण है, इसी कारण नर के जनक भगवान को नारायण कहा गया है । भगवान द्वारा जल में डाला गया वीर्य हिरण्य वर्ण का अंड हो गया । इस अंड से स्वंयभू ब्रह- की उत्पत्ति हुई । अण्ड में एक वर्ष रहकर ब्रहृ ने उसके दो खंड कर दिये । एक खंड पृख्वी और दूसरा खंड देवलोक ।

दोनों खंड़ो के अंतराल में आकाश की रचना कर पृथ्वी को जल पर स्थापित किया । तब सूर्य और दस दिशाएं बनायी गयी । उसी अंड से उन्होंने काल, मन, वचन, काम, क्रोध एवं अनुराग की सृष्टि की । सप्तऋषियों को प्रकट किया । परम क्रोधी रुद्र को उत्पन्न कर मारीचि आदि के पूर्वज सनत कुमार को जन्म दिया । विघुत, वज्रमेघ रोहित, इन्द्रधनुष तथा गगनचर खगों का निर्माण किया । वेदों की रचना की ।

अन्यान्य अंगों से अनेक प्रकार के प्राणी उत्पन्न किए । वशिष्ठ नामक प्रजापति भी बनाया, पर यह सब मन से उत्पन्न होने के कारण उनकी प्रजा में वृद्वि नहीं हो रही थी । अतएव तब ब्रहृ ने अपनी देव के दो भाग किए । एक को पुरुष बनाया, दूसरे को स्त्री । इस प्रकार भगवान ने विराट रचना की । विराट ने पुरुष को रचा । यह पुरुष मनु था । मनु ने मनवंतर का क्रम चलाया । योनिज सृष्टि में स्त्री संज्ञक द्वारा दूसरा अंतर उपस्थित हो गया । इसी कारण मनवंतर शब्द चल पड़ा । इस प्रकार योनिज अनोयिज दोनों प्रकार की सृष्टि हुई । शतरुपा अयोनिजा कन्या विराट की पत्नी बनी । शतरुपा ने विराट पुरुष के द्वारा वीर नामक पुत्र उत्पन्न किया ।

उससे विप्रवत् और उत्तानपाद नामक दो पुत्र, काम्या नामक एक पुत्री उत्पन्न हुई । काम्या के चार पुत्र सम्राट, रुक्षि, विराट और प्रभु हुए । उत्तानपाद ने चार पुत्र उत्पपन्न किए । ध्रुव, कीर्तिमान, शिव और अस्वपति । ध्रुव ने घोर तपस्या की । ब्रहृ ने उन्हें उच्च लोक प्रदान किया । धुव्र के तीन पुत्र हुए । कालान्तर में इसी वंश में वेन हुआ । वह देवताओं का द्रोही निकला । तब मुनियों ने उसकी दक्षिण भुजा कर मंथन का पृथृ नामक पुत्र को जन्म दिया । पृथू राजसूय यज्ञ का अनुष्टान करने वाला पहला राजा हुआ । पृथू राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान करने वाला पहला राजा हुआ । पृथू ने प्राणियों को, जीवन दान देने के उद्देश्य से देवता, दानव, गंंधर्व, अप्सरा, सर्प, यज्ञ, लता, पर्वतादि से मिलकर सबको बछड़ा बनाकर पृथ्वी का दोहन किया । तब पृथ्वी ने अन्नादि दुग्ध प्रदान किया, तो सबकी जीविका का साधन बनी । आगे चलकर इसी पृथू वंश के प्रचेता की उदासीनता के कारण पृथ्वी वृक्ष-विहीन हो गई । तब वृक्षों के अधिपति सोम ने प्रजापति का सहारा लिया । तब चन्द्रमा के अंश से दक्ष प्रजापति उत्पन्न हुए । दक्ष प्रजापति ने चन्द्रवंश का विस्तार किया ।

मुनिवरों दक्ष प्रजापति के समय से मैथुनी सृष्टि प्रारम्भ हो गयी । इसमें नारद ने बाधा डाली । दक्ष प्रजापति ने उनको शाप देकर भस्म कर दिया । तब देवताओं के अनुरोध पर ब्रहृ ने दक्ष प्रजापति से एक कन्या लेकर नारद को पुनर्जन्म दिया । दक्ष प्रजापति का वंश बढ़ता गया । बहुत काल बाद दिति के गर्भ से कश्यप ने अत्यन्त बलवान पुत्र उत्पन्न किए । उनके नाम हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष थे । प्रहलाद हिरण्यकशिपु का ही पुत्र था ।

सूतजी बोले, आगे चलकर ब्रहृ ने चन्द्रमा को ब्राहणो, नक्षत्रो, ग्रहो, यज्ञों और तपस्याओं का अधिपति बनाया । वरुण को जल का, कुबेर को धन का, वृहस्पति को सम्पूर्ण विश्वका अधिपति नियुक्त किया । भृगुवंशियों के अधिपति शुक्राचार्य बने । आदित्यों के विष्णु, वसुओं के अधिपति अग्नि बनाये गये । प्रजापतियों के दक्ष, दैत्यों के प्रहलाद, मरुतों के इन्द्र, पितरों के सूर्यपुत्र यम, रुद्रों के भगवान शिव और षोडष मात्रिकाओं, व्रती, मंत्री, गौत्रों, यक्षो, राक्षसों, राजाओ, साध्यों के अधिपति भगवान विष्णु बनाये गये ।

मुनिवरों, इसी प3कार विप्रचित दानवों के, शिव भूत-प्रेत, पिशाचों के, हिमवान पर्वतों के, समुद्र नदियों के, अशरीरी प्राणियों के और शब्दों के वायु, गंधर्वों के चित्ररथ, नागों के वासुकि, सर्पों के तक्षक, हाथियों के ऐरावत, घोड़ों के उच्चैक्षवा, पक्षियों के गरुड़, मृगों के सिंह, गौवों के वृषभ, वृत्रों के पीपल, गंधर्वों, अप्सराओं के कामदेव और ऋतु, मास, पक्ष, दिन, रात, मुहूर्त, कला, काष्ण, ऋतु, अयन, योग, गणित का अधिपति संवत्सर को बनाया । इस प्रकार का कार्य विभाजन कर तब ब्रहजी ने दिगपालों की नियुक्ति की । सूतजी बोले, मुनिवरों तब ब्रहृ ने सुधन्वा को पूर्व का, शंखपदम् को दक्षिण का, अच्युत केतुमान को पश्चिम का, हिरण्यरोमा को उत्तर का दिग्पाल बनाकर सबको पृथु के अधीन कर दिया । तब शौनक जी बोले, सूतजी, वेन तो महादुरात्मा था, तब उसका पुत्र पृथृ क्योंकर इतना प्रतापी हुआ ।
शौनक जी की इस जिज्ञासा पर सूतजी बोले, हां मुनिवरों । मृत्यु सुता सुनीता के गर्भ से उत्पन्न वेन दुराचारी था । उसने यज्ञ-हवन बन्द कराकर देवताओं के सारे कार्य रोक दिये । उसने अपने को ही एकमात्र देवता बतलाया । उसे मरीचि आदि मुनियों ने भी समझाया । वेन न माना, वह अपनी जिद पर था । तब मुनियों ने उसे पकड़कर उसकी जांघ का मंथन किया । वेन बहुत छटपटाया । उसकी जांघ से एक बौना और काले रंग का पुरुष उत्पन्न हुआ । वह खड़ा ही रहा । तब मुनि ने उसे निषीद कहा (बैठ जाओ) इसी निषीद शब्द के कारण यह निषादवंश का आदिपुरुष बना । तब मुनियों ने वेन की दक्षिण भुजा को मथा । उससे पृथृ का जन्म हुआ । तब वेन नरक में चला गया । पृथू अत्यन्त धर्मात्मा और प्रतापी राजा बना । उसके यज्ञ कुंड से सूत, मागध उत्पन्न हुए । तब पृथू ने सूत को अनूप प्रदेश और मागधा को मगध प्रदेश का शासक बनाया । इतना सब करने के उपरान्त पृथु ने पृथ्वी को रहने योग्य बनाया । राजा पुथु के इसी कार्य के कारण यह भूमंडल उनके नाम पर ही पृथ्वी कहलाता था । हे मुनिवरों राजा पृथ ने भूमि समतल की । पर्वतों को जन्म दिया । उन्होंने पृथ्वी का दोहन कर उसे रहने योग्य बनाया । इसके बाद असुरों, नागों, यक्षो, राक्षसों, गंधर्वो, अप्सराओं, पर्वतों, वृक्षों ने पृथ्वी का दोहन किया । पृथ्वी का विस्तार समुद्र तक हो गया । एक समय वह मधुकैटभ के मद में व्याप्त हो गयी थी । अतएव पृथ्वी का नाम मेदिनी भी हो गया । इस प्रकार दोहन के हो जाने के उपरान्त पृथ्वी योग्य हो गयी ।

सूतजी इतना कहकर मौन हो गए । तब शौनक जी ने उससे मन्वन्तर के विषय में प्रश्न किया । सूतजी ने सम्पूर्ण मनुओं और मन्वन्तर की कथा सुनायी । फिर सूर्य, संन्ध्या की छाया, यज्ञ के जन्म का विवरण दिया । सूत जी बोले, मुनिवरो । वैवस्वत मनु के वंशजों ने महाविशालकाय दानव धुन्ध का वध कर पृथ्वी का उद्वार कियग । राजा कुशलाश्व के जन्म में महर्ष गालब का जन्म हुआ । विश्वामित्र की भार्या ने इनको जन्म दिया था । सत्यव्रत ने गालब को विश्वामित्र की भार्या से खरीद लिया था । बाद में सत्यव्रत महर्ष वशिष्ठ के शाप के कारण त्रिशंकु कहलाये । विश्वामित्र को जब यह ज्ञात हुआ, तब उन्होंने त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया । कंकय नरेश की कन्या सत्यरथा त्रिशंकु की पत्नी थी । उसने हरिश्चन्द्र को जन्म दिया और हरिशचन्द्र से रोहित उत्पन्न हुए । तत्पश्चात राजा सगर का आगमन हुआ । पर्याप्त अन्तराल के बाद सूर्यवंश ने विकास पाया । यशस्वी भागीरथ पवित्र गंगा को पृथ्वी पर ले आये । इस प्रकार हे मुनिवरों, परम-पिता व्रहृ के द्वारा निर्मित सृष्टि बराबर बढ़ती गयी । धर्म, अधर्म का संघर्ष होता रहा । समय-समय पर ब्रहृ के आदेश से भगवान विष्णु अवतार लेकर पृथ्वी पर धर्म की स्थापना करते रहे । मुनिवरों । इन अवतारों की कथा बड़ी रोचकहै । परम पिता परमात्मा ब्रहृ ने सदा पृथ्वी पर कृपादृष्टि रखी है । इस कारण मुनिवरों, हम उन्हीं के अंश है । उनकी ही कृपा से हम इस नैमिषारण्य में समागम कर रहे है ।
सूत जी का यह कथन सुनकर उपस्थित मुनिगण गदगद हो गये । सूतजी का कथन सर्वथा सत्य था । तब शौनक जी बोले, हे मुनि श्रेष्ठ, हमारे ज्ञान वर्धन के लिये कृपापूर्वक आपने ब्रहृ द्वारा हरि (विष्णु) के अवतारों की बात कही है । अतएव विष्णु के यह सब अवतार हरिवंश कहलाये । आप हमें हरिवंश-पुराण सुनाने की कृपा करें ।

शौनक जी के इस प्रश्न पर सूतजी अत्यन्त प्रसन्नता के साथ बोले, मुनिवरों आपकी यह जिज्ञासा मेरा उत्साहवर्द्वन करती है । हरिवंश (विष्णु अवतारों) में सबसे प्रिय श्रीकृष्ण है । मैं इनका ही दिव्य चरित्र आप सबको सुनाना चाहता हूँ । हे मुनिवरों इस कथा का नाम ही हरिवंश पुराण है । हरिवंश पुराण के श्रवण से उसी प्रकार के पुत्र की प्राप्ति होती है, जिस प्रकार का पुत्र देवकी और वासुदेव को प्राप्त हुआ था । विधिपूर्वक इस कथा के श्रवण और बाद में संतान के लिये प्रार्थना करने पर याचक को पुत्ररत्न की प्राप्ति अवश्य होती है । हरिवंश पुराण के श्रवण की यह महिमा है । अतएव प्रथम मैं हरिवंश पुराण की कथा कहता हूँ । तत्पश्चात उसके श्रवण की विधि और सन्तान हेतु की गयी प्रार्थना का विवरण दूंगा, आप सब ध्यानपूर्वक सुनें । सूतजी के इस कथन पर सब मुनिगण गदगद हो गये और आगे का विवरण सुनने के लिये अत्यन्त उत्सुकतापूर्वक सावधान होकर बैठ गये ।