16 जुलाई 2010

अहोई अष्टमी व्रत ( Ahoi Ashtami fast )

यह व्रत कार्तिक मास की कृष्ण-पक्ष अष्टमी के दिन किया जाता है। इस व्रत की आरोग्यता-प्राप्ति एवं दीर्घजीवी संतान होने के निमित्त किया जाता है।

व्रत-विधान एवं पूजन
इस व्रत को दिन भर निराहार रहकर स्त्रियों-द्वारा किया जाता है। रात्री में चंद्रोदय होने के बाद दीवार पर बनी अहोई माता के चित्र के सामने किसी एक लोटे में जल भरकर रख दे। चाँदी-द्वारा निर्मित चाँदी की स्याऊ की मूर्ती और दो गुडिया रखकर उसे मौली से गूंधले। तत्वश्चात रोली, अक्षत से उनकी पूजा करे। पूजा करने के बाद दूध-भात, हलवा आदि का उन्हें नैवेध अर्पित करें।

तदन्त पहले से रखे जलपूर्ण- पात्र से चन्द्रमा को अर्ध्यदान करें। इसके तदन्तर हाथ से गेहूं के सात दाने रखकर अहोई माता की कथा सुने। कथा श्रवण करने के बाद मौली में पिरोई गई अहोई माता को गले में पहन लें। अर्पित किये गए नैवेघ को ब्रह्मण को दान कर दें। यदि ब्रह्मण न हो तो अपनी सास को ही दे दे। इसके तदन्तर स्वयं भोजन करे।
प्रत्येद संतानोत्पत्ति के पश्चात एक-एक अहोई माता की मूर्ती बनवाकर पूर्व के गूथे हुए मौली में बढाती जाए। प्रत्येक पुत्रो के विवाहोपरांत भी इसी प्रकार की क्रिया दुहराए। जब भी गले से अहोई उतारने की आवश्यकता पड़े तो किसी शुभ दिन में उतार कर उन्हें गुड आदि का नैवेघ देकर जल का आचमन कराकर रख । ऐसा करने से संतान में वृद्धि होती है। अहोई अष्टमी-पूजन के बाद ब्रह्मण को कूष्माण्ड दान करने से विशेष फल की प्राप्ति होती है।

अहोई अष्टमी उघापन विधि
जिस स्त्री का पुत्र न हो अथवा उसके पुत्र का विवाह हुआ हो, उसे उघापन अवश्य करना चाहिए। इसके लिए, एक थाल मे सात जगह चार-चार पूरियां एवं हलवा रखना चाहिए। इसके साथ ही पीत वर्ण की पोशाक-साडी, ब्लाउज एवं रूपये आदि रखकर श्रद्धा पूर्वक अपनी सास को उपहार स्वरूप देना चाहिए। उसकी सास को चाहिए की, वस्त्रादि को अपने पास रखकर शेष सामग्री हलवा-पूरी आदि को अपने पास-पडोस में वितरित कर दे। यदि कोई कन्या होतो उसके यहां भेज दे।

सेठ-सेठानी की कथा
किसी नगर में साहूकार रहता था। उसके सात पुत्र थे। एक दिन साहूकार की पत्नी खदान में-से खोदकर मिटटी लाने के लिये गई। ज्यों ही उसने मिटटी खोदने के लिये कुगाल चलाई त्योंही उसमें रह-रहे स्याऊ के बच्चे प्रहार से आहात होकर मृत हो गए। जब साहूकार की पत्नी ने स्याऊ को रक्तरंजित देखा तो उसे बच्चों के मर जाने का अत्यधिक दुःख हुआ। परन्तु जो कुछ होना था वो हो चुका था। यह भूल उससे अनजाने में हो गई थी। अतः दुखी मन से वह घर लौट आई। पश्चाताप के कारण वह मिटटी भी नहीं ली।
इसके बाद स्याहू जब घर में आई तो उसने अपने बच्चों को प्रतावस्था में पाया। वह दुःख से कतार हो अत्यंत विलाप करने लगी। उसने इश्वर से प्रार्थना की, जिसने मेरे बच्चो को मारा है उसे भी त्रिशोक-दुःख भुगतना पड़े। इधर स्याहू के श्राप से एक वर्ष के अन्दर ही सेठानी के सातों पुत्र काल-कलवित हो गए। इस प्रकार की दुखद घटना देखकर सेठ-सेठानी अत्यंत शोकाकुल हो उठे।
उस दम्पंती ने किसी तीर्थ स्थान पर जाकर अपने प्राणों का विसर्जन कर देने का मन में संकल्प कर लिया। मन में ऐसा निश्चय कर सेठ-सेठानी घर से पैदल ही तीर्थ की ओर चल पड़े। उन दोनों का शरीर पूर्ण रूप से अशक्त न हो गया तब तक वे बरावर आगे बढ़ते रहे। जब वे चलने में बिलकुल असमर्थ हो गए, तो रास्ते में ही मूर्छित हो कर भूमि पर गिर पड़े। उन दोनों की इस दयनीय दशा को देखकर करूणानिधि भगवान् उन पर दयार्द हो गए और अकश्वाने की - 'हे सेठ! तेरी सेठानी ने मिटटी खोदते समय अनजाने में ही स्याहू के बच्चों को मार डाला था। इस लिये तुझे भी अपने बच्चों का कष्ट सहना पडा। भगवान् ने आज्ञा दी- अब तुम दोनों अपने घर जाकर गाय की सेवा करो और अहोई अष्टमी आने पर विधि-विधान पूर्वक प्रेम से अहोई माता की पूजा करो। सभी जीवों पर दया भाव रखो, किसी की अहित न करो। यदि तुम मेरे कहने के अनुसार आचरण करोगे, तो तुम्हे संतान सुख प्राप्त हो जाएगा।'
इस आकाशवाणी को सुनकर सेठ-सेठानी को कुछ धैर्य हुआ और वे दोनों भगवती का स्मरण करते हुए अपने घर को प्रस्थान किये। घर पहुँचार उन दोनों ने अकश्वाने के अनुसार कार्य करना प्रारंभ कर दिया। इसके साथ ईर्ष्या-द्वेष की भावना से रहित होकर सभी प्राणियों पर करूणा का भाव रखना प्रारंभ कर दिया।
भगवत-कृपा से सेठ-सेठानी पुनः पुत्रवान होकर सभी सुखों का भोग करने लगे और अन्तकाल में स्वर्गगामी हुए।

साहूकार की कथा
एक साहूकार के सात बेटे, सात बाहें एवं एक कन्या थी। उसकी बहुए कार्तिक कृष्ण अष्टमी को अहोई माता के पूजन के लिये जंगल में अपनी ननद के साथ मिट्टी लेने के लिये गईं मिट्टी निकलने के स्थान पर ही एक स्याहू की मांड थी। मिटटी खोदते समय ननद के हाथ से स्याहू का बच्चा चोट खाकर मर गया। स्याहू की माता बोली, अब मैं तेरी कोख बांढूगी अर्थात अब तुझे मैं संतान-विहीन कर दूंगी। उसके बात सुनकर ननद ने अपने सभी भाभियों से अपने बदले में कोख बंधा लेने के लिये आग्रह किया, परन्तु उसकी सभी भाभियों ने उसके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। परन्तु उसकी छोटी भाभी ने कुछ सोच-समझकर अपनी कोख बंधवाने की स्वीकृति ननद को दे दी।
तदन्तर उस भाबी को, जो भी संतान होती वे सात दिन के बाद ही मर जाती। एक दिन पंडित को बुलाकर इस बात का पता लगाया गया।
पंडित ने कहा तुम काली गाय की पूजा किया करो। काली गाय रिश्ते में स्याहू की भायली लगती है। वह यदि तेरी कोख चोद दे तो बच्चे जीवित रह सकते है। पंडित की बात सुनकर छोटी बहु ने दूसरे दिन से ही काली गाय की सेवा करना प्रारंभ कर दिया। वह प्रतीदिन सुबह सवेरे उठकर गाय का गोबर आदि साफ़ कर देती. गाय ने अपने मन में सोचा की, यह कार्य कौन कर रहा है, इसका पता लगाऊंगी। दूसरे दिन गाय माता तडके उठकर क्या देखती है की उस स्थान पर साहूकार की एक बहु झाडू बुहारी करके सफाई कर रही है। गऊ माता ने उस बहु से पुचा की टू किस लिए मेरी इतनी सेवा कर रही है और वह उससे क्या चाहती है ? जो कुछ तेरी इच्छा हो वह मुझ से मांग ले। साहूकार की बहु ने कहा - स्याहू माता ने मेरी कोख बाँध दी है जिससे मेरे बच्चे नहीं बचते है। यदि आप मेरी कोख खुलवा दे तो में आपका बहुत उपकार मानूँगी। गाय माता ने उसकी बात मान ली और उसे साथ लेकर सात समुद्र पार स्याहू माता के पास ले चली। रास्ते में कड़ी धूप से व्याकुल होकर दोनों एक पेड़ की छाया में बैठ गई।
जिस पेड़ के नीचे वह दोनों बैठी थी उस पेड़ पर गरूड पक्षी का एक बच्चा रहता था। थोड़ी देर में ही एक सांप आकर उस बच्चे को मारने लगा। इस दृश्य को देखकर साहूकार की बहु ने उस सांप को मारकर एक डाल के नीचे छिपा दिया और उस गरूड के बच्चे को मरने से बचा लिया। इस के पश्चात उस पक्षी की मान ने वहां रक्त पडा देखकर साहूकार की बहू कको चोंच से मारने लगीं।
तब साहूकार की बहू ने कहा - मैंने तेरे बच्चे को नहीं मारा है। तेरे बच्चे को डसने के लिए सांप आया था मैंने उसे मारकर तेरे बच्चे की रक्षा की है। मरा हुआ सांप डाल के नीचे दबा हुआ है। बहू की बातों से वह प्रसन्न हो गई और बोली- तू जो कुछ चाहती है मुझसे मांग ले। बहू ने उस से कहा- सात समुद्र पाय साहू माता रहती है टू मुझे उस तक पहुंचा दे। तब उस गरूड पंखिनी ने उन दोनों को अपनी पीठ पर बिठाकर समुद्र के उस पार स्याहू माता के पास पहुंचा दिया।
स्याहू माता उन्हें देखकर बोली - आ बहिन, बहुत दिनों बात आयी है। वह पुनः मेरे सिर में जूं पड गई है। तू उसे निकाल दे। उस काली गाय के कहने पर साहूकार की बहू ने सिलाई से स्याहू माता की सारी जूं निकाल दिया। इस पर स्याहू माता अत्यंत खुश हो गयी। स्याहू माता ने उस साहूकार की बहू से कहा- तेरे साथ बेटे और सात बाहें हो। सुनकर साहूकार की बहू ने कहा- मुझ तो एक भी बेटा नहीं है सात कहाँ से होंगे। स्याहू माता ने पुछा- इसका कारण क्या है? उसने कहा यदि आप वचन दें तो इसका कारण बता सकती हूँ। स्याहू माता ने उसे वचन दे दिया। वचन-बद्ध करा लेने के बाद साहूकार की बहू ने कहा- मेरी कोख तुम्हारे पास बंद पडी है, उसे खोल दें।
स्याहू माता ने कहा- मैं तेरी बातों में आकर धोखा खा गयी। अब मुझे तेरी कोख खोलनी पड़ेगी। इतना कहने के साथ ही स्याहूँ माता ने कहा- अब तू घर जा तेरे सात बेटे और सात बहुएं होगीं घर जाने पर तू अहोई माता का उघापन करना। सात सात अहोई बनाकर सात कडाही देना। उसने घर लौट कर देखा तो उसके साथ बेते और साअत बहुएं बैठी हुई मिलीं वह खुशी के मारे भाव-विभोर हो गई उसने सात अहोई बनाकर सात कडाही देकर उघापन किया। इसके बाद ही दीपावली आया। उसकी जेठानियाँ परस्पर कहने लगीं- सब लोग पूजा का कार्य शीग्र पूरा कर लो। कहीं ऐसा न हो की, छोटी बहू अपने बच्चों का स्मरण कर रोना-धोना न शुरू कर दे। नहीं तो रंग में भंग हो जायेगा। जानकारी करने के लिये उन्होंने अपने बच्चों को छोटी बहू के घर भेजा। क्योंकि छोटी बहू रूदन नहीं कर रही थी। बच्चों ने घर जाकर बताया की वह वहां आता गूंथ रही है और उघापन का कार्यक्रम चल रहा है।
इतना सुनते ही सभी जेठानियाँ आकर उससे पूछने लगी की, तुने अपनी कोख कैसे खुलवाये। उसने कहा- स्याहू माता ने कृपाकर उसकी कोख खोल दी। सब लोग अहोई माता की जय-जयकार करने लगे। जिस तरह अहोई माता ने साहूकार की बहू की कोख खोल दिया उसी प्रकार इस व्रत को करने वाले सभी नारियल की अभिलाषा पूर्ण करें।

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