15 जून 2010

ऐसे पाएं अशुभ जन्म योग से छुटकारा ( Get rid of that sum born evil )

जन्म और मृत्यु पर किसी का वश नहीं होता। कहते हैं, जो जैसा कर्म करता है उसी के अनुरूप उसे जीवन में सुख और दुख मिलता है। यानी सुख-दुख का निर्धारण जातक के जन्म कुंडली से ही हो जाता है। जब भी शिशु पैदा होता है, उस समय कोई न कोई तिथि, पक्ष, करण, नक्षत्र एवं योग आदि होते हैं। इनमें से अमावस्या, भद्रा करण, संक्रांति, दग्धदि योग तथा ग्रहणकाल आदि अशुभ योग कहलाते हैं। ये योग मनुष्य को विभिन्न प्रकार से हानि, दुख एवं असफलता देने वाले होते हैं। तंत्र शास्त्र में अशुभ जन्म योग के दुष्प्रभावों से बचने के लिए शास्त्र सम्मत उपाय दिए गए हैं। आप भी इन उपायों को अपनाकर अपना जीवन सुखमय बना सकते हैं।

अमावस्या तिथि में जन्म होना माता-पिता की आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव डालता है। जो व्यक्ति अमावस्या तिथि में जन्म लेते हैं, उन्हें जीवन में आर्थिक तंगी का सामना करना होता है। वहीं अमावस्या तिथि में भी जिस व्यक्ति का जन्म पूर्ण चंद्र रहित अमावस्या में होता है, वह अधिक अशुभ माना जाता है। इस अशुभ प्रभाव को कम करने के लिए सूर्य एवं चंद्रमा की शांति के उपाय करें। रुद्राभिषेक करें तथा घी सहित छायापात्र का दान करें। उपरोक्त योग नष्ट हो जाएगा।

कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी में जन्म होने पर जातक की माता, पिता, मामा, वंश या स्वयं का नाश होता है। ऐसी स्थिति से बचने के लिए नियमित रूप से ब्राह्मïणों को भोजन कराएंं। प्रतिदिन महामृत्युंजय मंत्र का जप करें और शिवजी का पूजन करें। इससे चतुर्दशी का प्रभाव कम होता है।

भद्रा में जन्म होने पर जातक को सुख-ऐश्वर्य नहीं प्राप्त होता। अनेक रोगों एवं कष्टों का सामना करना पड़ता है। इसके निवारण के लिए किसी शुभ लग्न में रुद्राभिषेक कराएं। पीपल की पूजा एवं प्रदक्षिणा करें। सूर्य सूक्त तथा गणपति सूक्त का पाठ करें। इससे भद्रा के दुष्प्रभावों को काफी हद तक कम किया जा सकता है। यदि पुत्र और पिता, माता एवं पुत्री अथवा दो भाइयों, दो बहनों या एक भाई-एक बहन का जन्म नक्षत्र एक ही हो, तो दुर्बल ग्रह स्थिति वाले व्यक्ति को मृत्यु तुल्य कष्ट, दरिद्रता एवं अपयश भोगना पड़ता है। इस योग के निवारण के लिए गणेशाम्बिका का पूजन करें। नवग्रहों का पूजन करना भी काफी लाभदायक होता है।

सोमवार को ग्यारहवीं, मंगलवार को पचंमी, बुधवार को तृतीया, गुरुवार को षष्ठी, शुक्रवार को अष्टम, शनिवार को नवमी तथा रविवार को द्वादशी तिथि होने पर दग्धदि योग कहलाता है। इस योग में उत्पन्न होने वाले जातक को विभिन्न प्रकार की विपत्तियों का सामना करना पड़ता है। इस योग के दुष्प्रभावों का शमन करने के लिए वार एवं तिथि विशेष देवता की पूजा-अर्चना करना उपयोगी होता है। इसके अलावा महामृत्युंजय मंत्र का पाठ करने से भी काफी लाभ होता है। सूर्य द्वारा एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश का समय संक्रांति कहलाता है। स्पष्ट मान से 6 घंटा 24 मिनट आगे और 6 घंटा 24 मिनट पीछे तक संक्रांति का दुष्प्रभाव बहुत अशुभ होता है। यदि जातक का जन्म संक्रांति के समय हुआ है, तो उसे अशांति, असफलता, दरिद्रता एवं हानि का सामना करना पड़ता है। इस योग से बचने के लिए गोदान एवं स्वर्णदान करें तथा ब्राह्मणों को भोजन कराएं। यदि सूर्य और चंद्र दोनों एक अयन में हों तथा उनकी सक्रांति एक समान हो तो वैधृति योग होता है। यदि सूर्य एवं चंद्र की सक्रांति एक समान हो परंतु दोनों अलग-अलग अयन में हों तो व्यतिपात योग कहलाता है। ये दोनों योग बहुत अशुभ होते हैं। इसके निवारणार्थ छायापात्र का दान करें तथा महामृत्युंजय मंत्र का जप करें।

यदि जातक सूर्य या चंद्र के ग्रहणकाल में जन्म लेता है तो उसे शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक कष्ट के साथ-साथ मृत्यु का भी भय रहता है। इसके लिए सूर्य, चंद्र एवं राहु की पूजा-अर्चना करने से लाभ मिलता है।