25 अप्रैल 2010

हर सुख के पीछे से आता है दु:ख


सुख कभी अकेला नहीं आता, उसके पीछे से चुपके-चुपके दु:ख भी आ जाता है। हमें समझना चाहिए कि दु:ख भी जीवन के लिए उतना ही जरूरी है जितना सुख। हम लाख चाहें, दु:ख को आने से नहीं रोक सकते, न सुख को जाने से रोक सकते हैं। हां, तरीका बदला जा सकता है, हम तलाश करें ऐसे सुख की जो स्थायी हो, दु:ख रहे या चला जाए, सुख चिरस्थायी हमारे साथ ही बना रहे।

स्नान करके तन तो शुद्ध किया जाता है लेकिन मन को शुद्ध करने के लिए ध्यान ही करना पड़ेगा। ध्यान की प्रत्येक विधि शुद्ध होने की प्रक्रिया है। यूं भी कहा जा सकता है कि शुद्धता की शोध का नाम ही ध्यान है। आत्मा का सुख पाने के लिए मन और शरीर को भूलना होगा। इन दोनों के विस्मरण में ही आत्मा का स्मरण है और यहीं परमात्मा की अनुभूति है जिसे सामान्य भाषा में आस्तित्व का आनंद कहा गया है।हम दोनों ओर देखने की कोशिश करते हैं बाहर भी भीतर भी। वह भी एक साथ, यह असंभव है। जब अपने भीतर भी उतर रहे हों तो पूरा भीतर उतरें, बाहर को उन क्षणों में भूल ही जाएं। इस भीतर उतरने की क्रिया में ज्यादा अक्ल भी नहीं लगाना पड़ती है। हमारे सामने कबीर और बुद्ध का उदाहरण है। कबीर अनपढ़ थे कुछ तो उन्हें बुद्धु भी मानते रहे। बुद्ध परम विद्वान थे। लेकिन दोनों गहरे में जहां पहुचे वहां जाकर फर्क समाप्त हो गया। नतीजा यह है कि परमात्मा की निकटता को, ध्यान की अवस्था को बुद्धु भी पा सकते हैं बुद्धिमान भी। इसलिए ध्यान लगाने के लिए बुद्धिमान होना जरूरी नहीं है, हां समर्पित होना जरूरी है।समर्पित होने का लाभ यह भी है कि हम सुख-दुख से परे आनंद की स्थिति में जीने लगते हैं। हम जीवनभर सुख की तलाश में रहते हैं। सफलता, महत्वाकांक्षा के लिए अपना सबकुछ झोंक देने को तैयार रहते हैं। इस दौरान हमें जो सुख मिल भी जाते हैं वे दुख मिश्रित होते हैं। सफलता के लगे-लगे दुख भी होते हैं। कभी-कभी दुख इतने भारी होते हैं कि हमें पूरी तरह से तोड़ जाते हैं और हमारी सफलता का मजा खत्म ही हो जाता है। दुख मिश्रित सुख की जगह शुद्ध सुख चाहते हैं तो स्व की ओर चलना होगा, मुड़िए भीतर। वहां जो समाधि सुख मिलेगा उसमें दुख का कोई मिश्रण नहीं होगा।