10 अप्रैल 2010

रामायण – अरण्यकाण्ड - जटायु वध

सीता का आर्तनाद सुन कर जटायु ने उस ओर देखा तथा रावण को सीता सहित विमान में जाते देख बोले, "अरे ब्राह्मण! तू चारों वेदों का विश्वविख्यात ज्ञाता और महान विद्वान होते हुये एक पर-स्त्री का अपहरण कर के ले जा रहा है। अरे लंकेश! महाप्रतापी श्री रामचन्द्र जी की यह भार्या है। तुम ऐसा निन्दनीय कर्म कैसे कर रहे हो? राजा का धर्म तो पर-स्त्री की रक्षा करना है। तुम काम के वशीभूत हो कर अपना विवेक खो बैठे हो। छोड़ दो राम की पत्नी को। हे रावण! यह जानते हुये कि तुम बलवान, युवा तथा शस्त्रधारी हो और मैं दुर्बल, वृद्ध एवं शस्त्रहीन हूँ; फिर भी प्राण रहते मैं सीता की रक्षा करूँगा। तुमने जो यह भीषण अपराध किया है, उससे मैं तुम्हें रोकूँगा। यदि रोक न सका तो या तो मैं तुम्हारे प्राण हर लूँगा या स्वयं अपने प्राण दे दूँगा। मेरे जीवित रहते तुम सीता को नहीं ले जा सकोगे।"

जटायु के इन कठोर अपमानजनक शब्दों को सुन कर रावण उसकी ओर झपटा जो सीता को मुक्त कराने के लिये विमान की ओर तेजी से बढ़ रहा था। वायु से प्रवाहित दो मेघों की भाँति वे एक दूसरे से टकराये। क्रुद्ध जटायु ने मार-मार कर रावण को घायल कर दिया। घायल रावण भी वृद्ध दुर्बल जटायु से अधिक शक्तिशाली था। उसने अवसर पा कर जटायु की दोनों भुजायें काट दीं। पीड़ा से व्याकुल हो कर मूर्छित हो वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। जटायु को भूमि पर गिरते देख जानकी भी उसके पीछे भूमि पर गिरी, किन्तु रावण ने फुर्ती से केश पकड़ कर उन्हें भूमि पर गिरने से रोक लिया और "हा राम! हा लक्ष्मण!!" कह कर विलाप करती हुई सीता को विमान में एक ओर पटक दिया। फिर विमान को आकाश में ले जा कर तीव्र गति से लंका की ओर चल पड़ा।

जब उसने देखा कि सीता जोर-जोर से विलाप कर के वनवासियों को अपनी ओर आकर्षित कर रही है तो उसने सीता को बलात् खींच कर अपनी गोद में डाल लिया और एक हाथ उनके मुख पर रख कर उनकी वाणी अवरुद्ध करने का प्रयास करने लगा। उस समय उन्नत भालयुक्त, सुन्दर कृष्ण केशों वाली, गौरवर्णा, मृगनयनी जानकी का सुन्दर मुख रावण की गोद में पड़ा ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे पूर्णमासी का चन्द्रमा नीले बादलों को चीर कर चमक रहा हो। फिर भी सीता का क्रन्दन वन के प्राणियों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा था। वन के सिंह, बाघ, मृग आदि रावण से कुपित हो कर उसके विमान के नीचे दौड़ने लगे। पर्वतों से गिरते हुये जल-प्रपात ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानों वे भी सीता के दुःख से दुःखी हो कर आर्तनाद करते हुये आँसू बहा रहे हों। श्वेत बादल से आच्छादित सूर्य भी ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे अपनी कुलवधू की दुर्दशा देख कर उसका मुख श्रीहीन हो गया हो। सब सीता के दुःख से दुःखी हो रहे थे।

जब सीता को ऐसा प्रतीत हुआ कि अब दुष्ट रावण से मुक्ति का कोई उपाय नहीं है तो वह बड़ी दीनता से परमात्मा से प्रार्थना करने लगी, "हे परमपिता परमात्मा! हे सर्वशक्तिमान! इस समय मेरी रक्षा करने वाला तुम्हारे अतिरिक्त और कोई नहीं है। हे प्रभो! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो! हे दयामय! मेरे सतीत्व की रक्षा करने वाले केवल तुम ही हो।" जब सीता इस प्रकार भगवान से प्रार्थना कर रही थी तो उन्होंने नीचे एक पर्वत पर पाँच वानरों को बैठे देखा। उनको देख कर जानकी ने अनुसूया द्वारा दिये गये परिधान में उन्हीं के द्वारा दिये गये आभूषणों को बाँध कर ऊपर से गिरा दिया। अकस्मात् इस पोटली को गिरते देख वानरों ने ऊपर देखा कि एक विमान तेजी से उड़ता चला जा रहा है और उसमें बैठी कोई स्त्री विलाप कर रही है। वे इस विषय में कुछ और अधिक देख पाते उससे पूर्व विमान नेत्रों से ओझल हो गया। वनों, पर्वतों और सागर को पार करता हुआ रावण सीता सहित लंका में पहुँचा। उसने सीता को मय दानव द्वारा निर्मित सुन्दर महल में रखा। फिर क्रूर राक्षसनियों को बुला कर आज्ञा दी, "कोई भी मेरी आज्ञा के बिना इस स्त्री से मिलने न पावे। यह जो भी वस्त्र, आभूषण, खाद्यपदार्थ माँगे, वह तत्काल इसे दिया जाय। इसे किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होना चाहिये और न कोई इसका तिरस्कार करे। अवज्ञा करने वालों को दण्ड मिलेगा।"

इस प्रकार राक्षसनियों को आदेश दे कर अपने निजी महल में पहुँचा। वहाँ उसने अपने आठ शूरवीर सेनापतियों को बुला कर आज्ञा दी, "तुम लोग जा कर दण्डक वन में रहो। हमारे जनस्थान को राम लक्ष्मण नामक दो तपस्वियों ने उजाड़ दिया है। तुम वहाँ रह कर उनकी गतिविधियों पर दृष्टि रखो और उनकी सूचना मुझे यथाशीघ्र देते रहो। मैं तुम्हें यह अधिकार देता हूँ कि अवसर पा कर उन दोनों की हत्या कर डालो। मैं तुम्हारे पराक्रम से भली-भाँति परिचित हूँ। इसीलिये उन्हें मारने का दायित्व तुम्हें सौंप रहा हूँ।"

उन्हें इस प्रकार आदेश दे कर वह कामी राक्षस वासना से पीड़ित हो कर सीता से मिलने के लिये चल पड़ा।