22 अप्रैल 2010

रिश्ता कोई भी हो, उसमें पवित्रता जरूरी है

आधुनिकता से एक नुकसान यह हुआ है कि हमारी निजता अपवित्र हो रही है। सामाजिक जीवन में पारदर्शिता नहीं बची। रिश्तों के सहेजना और उनकी गरिमा को बरकरार रखना जरूरी है। अगर हमारा निजत्व ही पवित्र नहीं है तो फिर हम परमात्मा के पथ से काफी दूर हो जाएंगे। कोशिश करें अपने रिश्ते दुनिया और दुनिया बनाने वाले दोनों से ही पवित्र हों।

इस समय रिश्तों की व्यवहारिकता पर जोर दिया जाता है जबकि ध्यान दिया जाना चाहिए पवित्रता पर। आपसी संबंध उपहारों की तरह बना दिए गए हैं। इस हाथ दो, उस हाथ लो। रिश्तों में जब लेने-देने की नीयत आ जाए तब जीवन में लोभ, स्वार्थ, षडयंत्र और अशांति आना ही है। जैसे हम दुनिया में इस तरह से रिश्ते निभा रहे हैं वैसे ही दुनिया बनाने वाले भी निभाने लगते हैं और यहीं से गड़बड़ शुरु हो जाती है। भगवान से हमारा रिश्ता कैसे हो यह सवाल हर भक्त के मन में आता रहता है। क्या हम करें और क्या वो करेगा सवाल के इस झूले में हमारी भक्ति झूलती रहती है। श्रीकृष्ण अवतार में सुदामा प्रसंग इस प्रoA का उत्तर देता है। सांदीपनि आश्रम में बचपन में श्रीकृष्ण-सुदामा साथ पढ़े थे। बाद में श्रीकृष्ण राजमहल में पहुंच गए और सुदामा गरीब ही रह गए। सुदामा की पत्नी ने दबाव बनाया और सुदामा श्रीकृष्ण से कुछ सहायता लेने के लिहाज से द्वारिका आए। एक मित्र दूसरे मित्र से कैसे व्यवहार करे इसका आदर्श प्रस्तुत किया श्रीकृष्ण ने। खूब सम्मान दिया सुदामा को लेकिन विदा करते समय खाली हाथ भेज दिया। वह तो बाद में अपने गांव जाकर सुदामा को पता लगा श्रीकृष्ण ने उनकी सारी दुनिया ही बदल दी। भगवान के लेने और देने के अपने अलग ही तरीके होते हैं। बस हमें इन्हे समझना पड़ता है। वह दिखाकर नहीं देता पर खुलकर देता है। इस प्रसंग का खास पहलू यह है कि सुदामा ने पूछा था कृष्ण मैं गरीब क्यों रह गया। आपका भक्त होकर भी? श्रीकृष्ण बोले थे बचपन की याद करो, गुरु माता ने एक बार तुम्हे चने दिए थे कि जब जंगल में लकड़ी लेने जाओ तो कृष्ण के साथ बांटकर खा लेना। तुमने वो चने अकेले खा लिए, मेरे हिस्से के भी। जब मैंने पूछा था तो तुम्हारा जवाब था, कुछ खा नहीं रहा हूं बस ठंड से दांत बज रहे हैं। भगवान की घोषणा है जो मेरे हिस्से का खाता है और मुझसे झूठ बोलता है उसे दरिद्र होना पड़ेगा।