03 अप्रैल 2010

दशहरे के विविध रंग - देश के विभिन्न हिस्सों से

दशहरा का त्योहार पूरे भारत में उत्साह और धार्मिक निष्ठा के साथ मनाया जाता है। हालांकि, देश के विभिन्नर हिस्सों में इसके अलग-अलग प्रचलित नामों की ही तरह इसे मनाने के तरीक़े भी अलग-अलग हैं। नवरात्रि के 9 दिन बाद विजया दशमी यानी दशहरा आता है। दशहरा के मुख्य रीति-रिवाज़ों में माँ दुर्गा की प्रतिमाओं को घर और मंदिरों में प्रतिस्थापित करना होता है। त्योहार के दौरान भव्य उत्सव मनाया जाता है, जिस दौरान देवी को फल और फूल चढ़ाए जाते हैं और उनकी उपासना की जाती है।

बंगाल में दुर्गा पूजा
अपनी सांस्कृतिक विरासत के लिए मशहूर बंगाल में दशहरे का मतलब है दुर्गा पूजा। बंगाली लोग पाँच दिनों तक माता की पूजा-अर्चना करते हैं, जिसमें चार दिनों का ख़ासा अलग महत्व होता है। ये चार दिन पूजा के सातवें, आठवें, नौवें और दसवें दिन होते हैं; जिसे क्रमश: सप्तमी, अष्टमी, नवमी और दशमी के नामों से जाना जाता है।
दसवें दिन प्रतिमाओं की भव्य झांकियाँ निकाली जाती हैं और उनका विसर्जन पवित्र गंगा में किया जाता है। गलियों में माँ दुर्गे की बड़ी-बड़ी प्रतिमाओं को राक्षस महिषासुर का वध करते हुए दिखाया जाता है। विशाल पंडालों से पूरा राज्य पटा रहता है।

गरबे की धूम होती है गुजरात की दुर्गा पूजा में
गुजरात में दशहरे को मनाने का अपना अलग ही अंदाज़ है। यहाँ पर दशहरा मनाने में स्त्रियों की भूमिका मर्दों से कहीं ज़्यादा महत्वापूर्ण है, जो शायद नारीशक्ति का द्योतक है। गुजरात में माटी का सुशोभित रंगीन घड़ा माता का प्रतीक माना जाता है। इसे कुंवारी लड़कियाँ सिर पर रखकर एक लोकप्रिय नृत्य करती हैं, जिसे गरबा कहा जाता है। गरबा नृत्य एक ख़ास अंदाज़ में किया जाता है, जिसमें लड़कियाँ परस्पर अपने हाथों को टकराकर या सजे-धजे डंडों को टकराकर एक मधुर ध्वनि निकालती हैं।

इस पूरे नृत्य के क्रम की पृष्ठटभूमि में शक्ति प्रदान करने वाली परंपरागत धुनें बजती रहती हैं। पूजा और आरती के बाद पूरी रात डांडिया रास का आयोजन होता है। नवरात्रि के दौरान गुजराती लोग सोने और गहनों की ख़रीद को शुभ मानते हैं।

महाराष्ट्र में दुर्गा पूजा
महाराष्ट्र में दशहरे की ख़ासियत है कि यहाँ शक्ति की देवी माँ दुर्गा के अलावा ज्ञान की देवी माँ सरस्वषती की अराधना भी की जाती है। इस राज्यों में नवरात्रि के नौ दिन माँ दुर्गा को समर्पित होते हैं, जबकि दसवें दिन ज्ञान की देवी सरस्वती की वंदना की जाती है। इस दिन विद्यालय जाने वाले बच्चे अपनी पढ़ाई में आशीर्वाद पाने के लिए माँ सरस्वती की प्रतिमाओं और चित्रों की पूजा करते हैं।

किसी भी नई शुरुआत के लिए, ख़ासकर विद्या-आरंभ करने के लिए यह दिन काफ़ी शुभ माना जाता है। महाराष्ट्र के लोग इस दिन शादियों का आयोजन रखते हैं, गृहप्रवेश करते हैं या नया घर ख़रीदते हैं।

मैसूर का राजसी इतिहास नज़र आता है वहाँ के दशहरे में
मैसूर का दशहरा भी अपने आप में ख़ास होता है और काफ़ी धूमधाम से मनाया जाता है। नवरात्रि के दौरान मैसूर राजघराने की राजकीय देवी चामुण्डी की पूजा-अर्चना में यहाँ का राजकीय इतिहास सजीव हो उठता है। नवरात्र के दसवें दिन मैसूर के राजा जुलूस की शक़्ल में देवी की अराधना के लिए पहाड़ी के ऊपर बने मंदिर में जाते हैं। इस जुलूस में हाथी, घोड़े, रथ और सजे हुए सेवकों की क़तारें साथ-साथ चलती हैं।

तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश में औरतें दशहरे में बोम्मई कोलू का प्रबंध करती हैं। यह गुड़ियों को सीढ़ियों पर ख़ास ढंग से रखने की एक कला है। गुड़ियों को आकर्षक पोशाकों और फूलों, गहनों से सजाया जाता है। नौ कन्याओं या कुवांरियों को नए वस्त्र और मिठाइयाँ दी जाती हैं। शादीशुदा औरतें आपस में फूल, कुमकुम और हल्के नाश्ते का आदान-प्रदान करती हैं।

कश्मीर में दुर्गा पूजा का ख़ास अंदाज़
कश्मीर राज्य में नवरात्र के दौरान परिवार के वयस्क सदस्य नौ दिनों तक सिर्फ़ पानी पीकर उपवास पर रहते हैं। बहुत ही पुरानी परंपरा के अनुसार नौ दिनों तक लोग माता खीर भवानी के दर्शन करने के लिए जाते हैं। यह मंदिर एक झील के बीचों-बीच बना है।

इस झील के बारे में एक बड़ी ही प्रचलित कहानी है। माना जाता है कि देवी ने अपने भक्तों को आशीर्वाद दिया है कि किसी अनहोनी से पहले ही सरोवर का पानी नीला हो जाएगा। यह सुनने में अविश्वसनीय भले लगे, लेकिन यह सच है कि इंदिरा गांधी की हत्या के ठीक एक दिन पहले और भारत-पाक युद्ध के पहले यहाँ का पानी सचमुच काला हो गया था।

पहाड़ की संस्कृति और आस्था का प्रतीक है कुल्लू का दशहरा
हिमाचल प्रदेश में स्थित कुल्लु का दशहरा पूरे देश में प्रसि‍द्ध है। इसकी सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि जब पूरे देश में दशहरा समाप्तऔ हो जाता है, तब यहाँ के दशहरे की शुरुआत होती है। अन्य स्थानों की ही भाँति यहाँ भी एक सप्ताह पहले ही इस पर्व की तैयारी आरंभ हो जाती है। स्त्रियाँ और पुरुष सभी सुंदर वस्त्रों से सज्जित होकर तुरही, बिगुल, ढोल, नगाड़े, बाँसुरी आदि-आदि जिसके पास जो वाद्य होता है; उसे लेकर बाहर निकलते हैं। पहाड़ी लोग अपने ग्रामीण देवता का धूम-धाम से जुलूस निकाल कर पूजन करते हैं।

देवताओं की मूर्तियों को बड़े ही आकर्षक ढंग से सुंदर पालकी में सजाया जाता है। साथ ही वे अपने मुख्य देवता रघुनाथ जी की भी पूजा करते हैं। इस जुलूस में प्रशिक्षित नर्तक-नटी नृत्य करते हैं। सभी लोग जुलूस बनाकर नगर के मुख्य भागों से होते हुए नगर परिक्रमा करते हैं और कुल्लू नगर में देवता रघुनाथजी की वंदना से दशहरे के उत्सव का आरंभ होता हैं। दशमी के दिन इस उत्सव की शोभा निराली होती है। देश के बाक़ी हिस्सों की तरह यहाँ दशहरा रावण, मेघनाथ और कुंभकर्ण के पुतलों का दहन करके नहीं मनाया जाता। सात दिनों तक चलने वाला यह उत्स व हिमाचल के लोगों की संस्कृ ति और धार्मिक आस्थाा का प्रतीक है। उत्ससव के दौरान भगवान रघुनाथ जी की रथयात्रा निकाली जाती है। यहाँ के लोगों का मानना है कि क़रीब 1000 देवी-देवता इस अवसर पर पृथ्वी पर आकर इसमें शामिल होते हैं।