25 अप्रैल 2010

बोलिए दो बोल प्यार से

मानव व्यवहार है कि पढ़े हुए से सुना हुआ ज्यादा याद रहता है। हम जो कह रहे हैं कहीं-न-कहीं वह गहरा प्रभाव पैदा कर रहा है। हमेशा यह ध्यान में रखकर बोलें कि मुंह से निकले शब्द वापस नहीं आते। जब भी बोले प्यार से, विनम्रता से बोलिए। इससे आप विवादों से तो बचेंगे ही, लोकप्रिय भी होंगे।

ऊर्जा और समय दोनों को नष्ट करने का एक कारण वाद विवाद भी होता है। जो लोग वाद विवाद से बचे रहे हैं वे जीवन में अधिक सुखी और शांत पाए गए हैं। द्वेष-दृष्टि से स्वयं को मुक्त किया जाए। उदासीनाचार्य श्रीचन्द्र ने जो उपदेश दिए हैं उन्हें च्च्मात्रा वाणीज्‍ज कहा गया है। बड़े प्रतिकात्मक शब्द हैं ये मात्रा वाणी। मा का अर्थ है माया और त्रा का सांकेतिक अर्थ है त्राण यानी रक्षा। माया से रक्षा। भक्तों की यात्रा में माया बड़ी बाधा बन कर आती है। बहुत साधारण शब्दों में माया को जादू कहा जा सकता है। जादू यानी जो है नहीं उसे दिखा देना, भ्रम जाल। बड़े-बड़े उलझ गए माया के चक्कर में। इसीलिए श्रीचन्द्रजी ने अपने उपदेशों का प्यारा नाम दिया मात्रा वाणी।मात्रा को अलंकार भी कहा गया है। शब्दों के अलंकार, मनुष्य के सजावट के सारे गहने आभूषण उतर जाते हैं लेकिन वाणी का आभूषण सदैव रहता है। मात्रा वाणी वो शब्द श्रृंगार बन जाती है जिससे सारा जीवन सौंदर्य पा सकता है।मात्रा वाणी में श्रीचन्द्र एक जगह कहते हैं च्च्निर्वैर संध्या दर्शन छापा, वाद विवाद मिटावो आपाज्‍ज भक्त रहें, निर्वैर रहें यानी किसी से शत्रुता न रखें और अपने सारे वाद विवाद मिटा लें। विवाद होता क्यों है, एक ही कारण है अज्ञान। सबसे बड़ा अज्ञान है अपने आप के मूल को भूल जाना। दुनियाभर की जानकारी हो और यदि खुद को न जाना तो समझ लें हम अज्ञानी ही हैं।श्रीचन्द्रजी ने एक जगह बड़ी बारीक बात कही है। च्च्मन तो जोति सरूप है, अपना मूल पछाणाज्‍ज अपने मूल को पहचानते ही अज्ञान का पर्दा हटेगा। ज्ञान अपने आप प्रकाशित होगा, क्योंकि मन भी ज्योति स्वरूप है। जो मन पतन का कारण होता है वही उत्थान का माध्यम भी बन सकता है।