04 अप्रैल 2010

दासी पुत्र


ब्रह्मदत्त काशी राज्य पर जब शासन कर रहे थे, उन दिनों बोधिसत्व एक धनवान के रूप में पैदा हुए। जवान होने पर शादी कर ली। थोड़े समय बाद बोधिसत्व के एक पुत्र हुआ। उसी दिन उस घर की दासी के गर्भ से भी एक पुत्र पैदा हुआ। उसका नाम कटाहक रखा गया।

धनवान का पुत्र और कटाहक भी धीरे-धीरे बढ़ने लगे। धनवान का पुत्र जब पढ़ने जाता, तब कटाहक उसका त़ख्ता व किताबें लेकर साथ चलता था। इसलिए धनवान के पुत्र ने जो सीखा, वह दासी पुत्र ने भी सीख लिया।

धीरे - धीरे कटाहक शिक्षित और अ़क्लमंद हो गया। अब एक नौकर के स्तर पर रहना कटाहक को अच्छा न लगा। उसके मन में यह इच्छा पैदा हुई कि उसकी शिक्षा और अ़क्लमंदी के अनुकूल उचित स्थान प्राप्त कर लेना चाहिए। इस वास्ते उसने एक उपाय सोचा।

काशी से कई कोस की दूरी पर प्रत्यंत देश में बोधिसत्व का एक लखपति मित्र रहा करता था। उसके नाम कटाहक ने ख़ुद अपने मालिक की ओर से एक जाली पत्र लिखाः

‘‘मैं अपने पुत्र को आप के पास भेज रहा हूँ। हमारे बीच रिश्ता जोड़ लेना उचित होगा। इसलिए आप अपनी पुत्री का विवाह मेरे पुत्र के साथ करके अपने ही घर इसे रखिये। मैं फ़ुरसत पाकर ज़रूर आप से मिलने की कोशिश करूँगा!''

यह चिट्टी लिखकर कटाहक ने अपने मालिक की मुहर उस पर लगा दी, उनके खज़ाने से आवश्यक धन लेकर प्रत्यंत देश चला गया और लखपति के हाथ यह चिट्ठी दी।

लखपति वह चिट्टी पाकर खुशी के मारे उछल पड़ा। उसने एक शुभ मुहूर्त में कटाहक के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया।

फिर क्या था, कटाहक की सेवा में अब अनेक नौकर-चाकर हाज़िर रहने लगे। उसे स्वादिष्ट भोजन मिलने लगा। वह सुख-भोगों में डूब गया, फिर भी वह प्रतिदिन नाहक़ ख़ीझकर कह उठता था- ‘‘छीःछीः, इस प्रत्यंत देश की जनता सभ्यता तक नहीं जानती। यह भी क्या कोई भोजन है? और देखो, ये वस्त्र कैसे हैं? मैंने ऐसी असभ्यता और उजड्डपन कहीं नहीं देखी है।''

इस बीच बोधिसत्व के मन में संदेह हुआ कि आख़िर कटाहक का क्या हुआ? इसलिए उसकी खोज करने के लिए बोधिसत्व ने चारों तरफ़ अपने सेवकों को भेजा। उनमें से एक ने प्रत्यंत देश जाकर इस बात का पता लगाया कि कटाहक ने एक लखपति की बेटी के साथ शादी करके अपना नाम तक बदल डाला है और वह अपने को काशी के अमुक धनवान का पुत्र बतला रहा है।

यह ख़बर मिलते ही बोधिसत्व को बड़ा दुख हुआ। वे ख़ुद जाकर कटाहक को ले आने के ख़्याल से प्रत्यंत देश के लिए रवाना हुए। उनके आगमन का समाचार सुनकर कटाहक घबरा गया। पहले उसने भाग जाना चाहा, फिर उसने सोचा कि ऐसा करने पर उसका ही नुक़सान होगा। आख़िर उसने सोचा कि अपने मालिक को सच्चा हाल बतलाना ही उचित होगा। अपने मालिक के द्वारा स्वयं सारा हाल जानने के पहले सच्ची हालत उन्हें बताकर उन्हे शांत करना और उनसे अपनी करनी के लिए क्षमा मॉंग लेना अच्छा होगा।

पर अपने मालिक के पास नौकर जैसा व्यवहार करते देख लोग उस पर शंका कर सकते हैं । यों विचार करके एक दिन कटाहक ने अपने नौकरों से कहा, ‘‘मैं सब पुत्रों जैसा नहीं हूँ। मैं अपने पिता के प्रति पूज्य भाव रखता हूँ। जब मेरे पिता भोजन करने बैठते हैं, तब मैं उनके पास खड़े होकर पंखा झलता हूँ। पानी वगैरह सारी चीज़ें मैं उन्हें खुद पहुँचा देता हूँ।''

इसके बाद कटाहक अपने ससुर के पास जाकर बोला, ‘‘मेरे पिताजी आ रहे हैं, मैं अगवानी करके उन्हें ले आऊँगा।'' लखपति ने मान लिया। कटाहक अपने मालिक से नगर के बाहर ही मिला, उनके पैरों पर गिरकर अपनी करनी का परिचय दिया, उनसे क्षमा माँगकर प्रार्थना की कि उसे ख़तरे से बचा लें। बोधिसत्व ने उसे अभयदान दिया।


लखपति बोधिसत्व को देख प्रसन्न हुआ और बोला, ‘‘आपकी इच्छा के अनुसार अपनी बेटी का विवाह मैंने आपके पुत्र के साथ कर दिया है।''

बोधिसत्व ने प्रसन्नता दिखाने का अभिनय किया और कटाहक से भी पिता के समान वार्तालाप किया। इसके बाद उन्होंने लखपति की बेटी को बुलाकर पूछा, ‘‘बेटी, मेरा पुत्र तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार कर रहा है न?''

‘‘वैसे उनके अन्दर कोई कमी नहीं है, पर खाने की चीज़ों में उनको एक भी पसंद नहीं आती। कितने भी प्रकार के व्यंजन अच्छी तरह से बनवा दूँ, फिर भी उनमें कोई न कोई दोष ढूँढ लेते हैं! मेरी समझ में नहीं आता कि किस तरह से उनको खुश किया जा सकता है।'' कटाहक की पत्नी ने बताया।

‘‘हाँ, वह खाने के समय इसके पहले हमारे घर पर भी इसी तरह सब को तंग किया करता था। इसलिए इस बार जब वह खाने की शिकायत करने लग जाएगा, तब तुम यह श्लोक पढ़ो। मैं एक श्लोक तुम्हें लिखकर देता हूँ। उसे तुम कंठस्थ कर लो। फिर वह कभी खाते व़क्त शिकायत न करेगा।'' इन शब्दों के साथ बोधिसत्व ने उसे एक श्लोक लिखकर दिया।

इसके बाद बोधिसत्व थोड़े दिन वहाँ बिताकर काशी लौट गये। उनके जाने के बाद कटाहक की हिम्मत और बढ़ गई। वह पहले से कहीं ज़्यादा शिकायत करने लगा।

एक दिन कटाहक के मुँह से शिकायत सुनकर उसकी पत्नी ने यह श्लोक पढ़कर सुनायाः

‘‘बहूँपि सो विकत्थेच्य अं इं जनपदगतो,
अन्वागं त्वान धूसेच्य भुंज भोगे कटाहक।''

(कटाहक अनेक प्रकार से गालियाँ सुनकर दूसरी जगह जाकर अन्यों की निंदा करते समस्त प्रकार के सुख भोगता है।)

कटाहक की पत्नी इस श्लोक का भाव नहीं जानती थी। पर कटाहक ने समझ लिया कि उसके मालिक ने उसके नाम के साथ सारा रहस्य उसकी पत्नी को बता दिया है।

इसके बाद कटाहक ने फिर कभी खाना खाते व़क्त शिकायत नहीं की, बल्कि संतुष्ट होकर खाते हुए सुखपूर्वक दिन बिताने लगा।