04 अप्रैल 2010

पाप का फल


ब्रह्मदत्त काशी राज्य पर राज्य करते थे। उन दिनों बोधिसत्व ने सुतनु नाम से एक गरीब किसान के रूप में जन्म लिया। बड़ा होने पर सुतनु अपनी कमाई से अपने माता-पिता का पालन-पोषण करने लगा। थोड़े दिन बाद उसके पिता का देहान्त हो गया। वह सारा दिन मेहनत करके जो कुछ कमाता, वह उसके और उसकी माता के लिए पर्याप्त न होता था।

उस देश के राजा को शिकार खेलने का बड़ा शौक था। वह अक्सर जंगल में जाकर जंगली जानवरों का शिकार किया करता था। एक दिन राजा ने एक हिरण का पीछा करते हुए उस पर तीर चलाया। तीर की चोट खाकर हिरण मर गया। समीप में राजा का कोई भट न था। इसलिए वह उस हिरन को अपने कन्धे पर डाल वापस लौटने लगा।

दुपहर का समय था। कड़ी धूप थी। शिकार खेलने तथा हिरण को ढोने से राजा थक गया था। उस अवस्था में उस को एक विशाल वट वृक्ष की छाया बड़ी सुखद प्रतीत हुई । राजा हिरण को वहाँ पर रखकर पेड़ की छाया में विश्राम करने लगा।

दूसरे ही क्षण राजा के सामने एक ब्रह्म राक्षस प्रत्यक्ष हुआ और उसकी ओर बढ़ते हुए चिल्ला उठा, ‘‘मैं तुम्हें खा जाऊँगा।''

‘‘तुम कौन हो? मुझे खाने का तुम्हें क्या अधिकार हैं?'' राजा ने ब्रह्म राक्षस से पूछा।

‘‘मैं एक ब्रह्म राक्षस हूँ। यह वृक्ष मेरा है। इस की छाया में जो आ जाता है, इस पेड़ के नीचे की ज़मीन पर जो पैर रखता है, उन सबको खाने का मुझे अधिकार है,'' भूत ने कहा।


राजा ने गंभीरतापूर्वक विचार किया, कुछ युक्ति सोची और ब्रह्म राक्षस से पूछा, ‘‘तुम केवल आज के लिए आहार चाहते हो या प्रतिदिन तुम्हें आहार चाहिए?''

‘‘मुझे तो प्रतिदिन आहार चाहिए,'' ब्रह्म राक्षस ने झट उत्तर दिया।

‘‘यदि तुम इस हिरण को खाकर मुझे छोड़ दो तो मैं तुम्हारे प्रतिदिन के आहार की समस्या को हल कर दूँगा। मैं इस देश का राजा हूँ। इसलिए प्रतिदिन तुम्हारे पास अन्न के साथ एक आदमी को भी भेज सकता हूँ,'' राजा ने सुझाया।

ब्रह्म राक्षस बहुत प्रसन्न हुआ और बोला, ‘‘तब तो तुम्हें छोड़ देता हूँ परन्तु एक शर्त पर! जिस दिन मुझे समय पर आहार न मिला, उस दिन मैं स्वयं आकर तुम्हें खा जाऊँगा।''

इस के बाद राजा हिरण को ब्रह्म राक्षस के हाथ सौंपकर अपनी राजधानी लौट गया और अपने मंत्री को सारा वृत्तान्त सुनाया।

मंत्री ने राजा को समझाया, ‘‘महाराज, आप चिन्ता न कीजिए। हमारे कारागार में बहुत से क़ैदी हैं। उनमें से प्रतिदिन एक को ब्रह्म राक्षस के आहार के रूप में भेज दूँगा।''

उस दिन से मंत्री प्रतिदिन एक क़ैदी को अन्न के साथ भेजता रहा और ब्रह्म राक्षस उस क़ैदी को खाता रहा।

थोड़े दिन बाद सब क़ैदी समाप्त हो गये। मंत्री घबरा गया। उसकी समझ में न आया कि क्या किया जाये? उसने सारे राज्य में ढिंढोरा पिटवाया, ‘‘जो आदमी खाना लेकर जंगल में रहनेवाले भूतों के बरगद के पास जाएगा, उसको राजा पुरस्कार में एक हज़ार सोने के सिक्के देंगे।''

यह ढिंढ़ोरा सुनकर सुतनु ने सोचा, ‘‘वाह! यह कितने आश्र्चर्य की बात है! मैं हड्डी तोड़ मेहनत करूँ तो भी तांबे के चार सिक्के हाथ नहीं लगते। परन्तु ब्रह्म राक्षस का आहार बन जाने पर मुझको इतने सारे सोने के सिक्के हाथ लग जायेंगे।''

यह विचार करके सुतनु ने अपनी माँ से कहा, ‘‘माँ, मैं एक हज़ार सिक्के लेकर भूतों वाले बरगद के पास खाना ले जाऊँगा। उस धन से तुम्हारी सारी जिन्दगी आराम से कट जाएगी।''

‘‘बेटा, इस समय मुझे किस बात की कमी है? मैं तो सुखी हूँ। मुझे उस धन का क्या करना है जिसे पाने के लिए अपना बेटा खोना पड़े? लगता है तुम्हारी मति मारी गई है। क्या तुम्हें यह बात समझ में नहीं आई कि वहाँ जाने पर वह राक्षस तुम्हें खा जायेगा? नहीं, तुम्हें कहीं जाने की कोई आवश्यकता नहीं है, '' सुतनु की माँ ने कहा।

‘‘माँ, मुझे कोई खतरा न होगा। मैं सकुशल लौट आऊँगा।'' इस प्रकार सुतनु माँ को समझा कर राजा के पास गया।

उसने राजा से कहा, ‘‘महाराज, यदि आप अपने जूते, छतरी, तलवार और सोने का एक पात्र मुझे दिलवाएँ तो मैं जंगल में रहनेवाले भूतों के बरगद के पास आहार ले जाऊँगा।''

‘‘खाना ले जाने के लिए इन सारी चीज़ों की क्या आवश्यकता है?'' राजा ने पूछा।

‘‘ब्रह्म राक्षस को हराने के लिए!'' सुतनु ने झट उत्तर दिया।

इसके बाद सुतनु ने तलवार धारण की, जूते पहने, हाथ में छतरी ली और सोने के पात्र में अन्न लेकर दुपहर तक भूतों के बरगद के पास पहुँचा। पर वह पेड़ की छाया से थोड़ी दूरी पर छतरी की छाया में खड़ा रहा ।

ब्रह्म राक्षस उसकी प्रतीक्षा करता रहा। जब काफ़ी समय तक वह पेड़ के नीचे नहीं आया तो राक्षस असमंजस में पड़ गया। आज तक तो कभी ऐसा नहीं हुआ था। अन्त में उसने सुतनु से कहा, ‘‘तुम इस धूप में काफी दूर चल कर आये हो। छाया में आकर विश्राम कर लो।''

‘‘नहीं, मुझे तुरन्त वापस लौटना है। यह लो, तुम्हारे लिए खाना लाया हूँ।'' यह कहकर सुतनु ने सोने के पात्र को धूप में रख दिया और तलवार से उसे पेड़ की छाया में ढकेल दिया।


इस पर ब्रह्म राक्षस क्रोध में आकर हुँकार उठा, ‘‘मैं आहार के साथ आहार लानेवाले को भी खाता हूँ। क्या तुम्हें यह नहीं पता है?''

‘‘लेकिन याद रखो, मैं तुम्हारे पेड़ की छाया में नहीं आया हूँ। इसलिए तुम को मुझे खाने का क्या अधिकार है?'' सुतनु ने पूछा।

‘‘यह तो सरासर धोखा है! मेरा तो राजा के साथ समझौता है कि प्रतिदिन आहार में मुझे एक आदमी भी मिलेगा। आज तुम यह नियम तोड़ रहे हो। लगता है इसमें राजा की कोई चाल है या वह अपने ही किये हुए समझौते को तोड़ना चाहता है! मुझे राजा को दिखाना होगा कि वचन तोड़ने से क्या हो सकता है। आज मैं सीधे जाकर उस राजा को ही खा डालूँगा!'' ब्रह्म राक्षस ने झल्ला कर कहा।

‘‘तुमने किसी जन्म में महान पाप करके इस प्रकार राक्षस का जन्म धारण किया है। इसी के परिणाम-स्वरूप भूत बनकर इस बरगद के आश्रय में रहते हो। ऐसा नीच जीवन बिताते रहने पर भी तुम्हारी बुद्धि अभी तक ठिकाने नहीं लगी। अब भी सही, अपने मन को बदल डालो।'' इस प्रकार सुतनु ने ब्रह्म राक्षस को डाँट दिया।

इस पर ब्रह्म राक्षस सोच में पड़ गया। सुतनु की बात ने उसे बहुत प्रभावित किया परन्तु वह अपने स्वभाव और परिस्थितियों के कारण असमर्थ था। अन्त में उस ने चिन्तित स्वर में पूछा, ‘‘बताओ, मैं क्या करूँ? इससे अच्छा जीवन बिताने का क्या रास्ता है?''

‘‘तुम मेरे साथ चलकर हमारे नगर के द्वार पर निवास करो। वहाँ पर प्रतिदिन मैं तुम्हारे लिए सात्विक आहार भिजवाने का प्रबन्ध करूँगा। तुम मानवों को नोच-नोच कर खाने की अपनी बुरी आदत छोड़ दो,'' सुतनु ने समझाया।

ब्रह्म राक्षस ने ऐसा ही किया।

सुतनु को जीवित आया देखकर राजा को विस्मय हुआ। सुतनु ने सारा वृत्तान्त राजा को सुनाया। राजा ने परमानन्दित होकर सुतनु को अपना सेनापति नियुक्त किया और उसकी सलाह से सुखपूर्वक राज्य पर शासन किया।