10 अप्रैल 2010

रामायण - अरण्यकाण्ड - महर्षि शरभंग का आश्रम

विराध राक्षस को मारकर सीता और लक्ष्मण के साथ राम महामुनि शरभंग के आश्रम में पहुँचे। उन्होंने देखा महर्षि शरभंग अत्यन्त वृद्ध और शरीर से जर्जर हैं। ऐसा प्रतीत होता था कि उनका जीवन-दीप शीघ्र ही बुझने वाला है। उन्होंने महर्षि के चरणस्पर्श करके उन्हें अपना परिचय दिया। महर्षि शरभंग ने आगतों का सत्कार करते हुये कहा, "हे राम! इस वन-प्रान्त में तुम्हारे जैसे अतिथियों के दर्शन कभी-कभी ही होते हैं। मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था। अब तुम आ गये हो, इसलिये मैं इस नश्वर जर्जर शरीर का परित्याग कर ब्रह्मलोक में जाउँगा। मैं चाहता हूँ कि मेरी और्ध्व दैहिक क्रिया तुम्हारे ही हाथों से हो।" इतना कहकर महर्षि ने स्वयं अपने शरीर को प्रज्जवलित अग्नि को समर्पित कर दिया।

शरभंग के देहान्त के पश्चात् आश्रम की निकटवर्ती कुटियाओं में निवास करने वाले ऋषि-मुनियों ने रामचन्द्र के पास आकर प्रार्थना की, "हे राघव! आप क्षत्रिय नरेश हैं। हम लोगों की रक्षा करना आपका कर्तव्य है। हम यहाँ तपस्या करते हैं और हमारी तपस्या के चौथाई भाग का फल राजा को प्राप्त होता है। परन्तु शोक की बात यह है कि आप जैसे धर्मात्मा राजाओं के होते हुये भी राक्षस लोग अनाथों की तरह हमें सताते हैं और हमारी हत्या करते हैं। इन राक्षसों ने पम्पा नदी, मन्दाकिनी और चित्रकूट में तो इतना उपद्रव मचा रखा है कि यहाँ तपस्वियों के लिये तपस्या करना ही नहीं जीना भी दूभर हो गया है। ये समाधिस्थ तपस्वियों को असावधान पाकर मृत्यु के घाट उतार देते हैं। इसलिये हम आपकी शरण आये हैं। इस असह्य कष्ट और अपमान से हमारी रक्षा करके आप हमें निर्भय होकर तप करने का अवसर दें।

तपस्वयों की कष्टगाथा सुनकर राम बोले, "हे मुनियों! मुझे आपके कष्टों की कहानी सुनकर बहुत दुःख हुआ है। आप मुझे बताइये, मुझे क्या करना चाहिये। पिता की आज्ञा से मैं चौदह वर्ष तक इन वनों में निवास करूँगा। इस अवधि में राक्षसों को चुन-चुन कर मैं उनका नाश करना चाहता हूँ। मैं आप सबके सम्मुख प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं अपने भुजबल से पृथ्वी के समस्त मुनि-द्रोही राक्षसों को समाप्त कर दूँगा। मैं चाहता हूँ कि आप लोग मुझे आशीर्वाद दें जिससे मैं इस उद्देश्य में सफल हो सकूँ।

इस प्रकार उन्हें धैर्य बँधाकर और राक्षसों के विनाश की प्रतिज्ञाकर रामचन्द्र ने सीता और लक्ष्मण के साथ मुनि सुतीक्ष्ण के आश्रम में आये। वहाँ अतिवृद्ध महात्मा सुतीक्ष्ण के दर्शनकर उन्होंने उनके चरण स्पर्श किये और उन्हें अपना परिचय दिया। राम का परिचय पाकर महर्षि अत्यन्त प्रसन्न हुये और तीनों को समुचित आसन दे कुशलक्षेम पूछने लगे तथा फल आदि से उनका सत्कार किया। वार्तालाप करते करते जब सूर्यास्त की बेला आ पहुँची तो उन सबने एक साथ बैठकर सन्ध्या उपासना की। तीनों ने रात्रि विश्राम भी उनके आश्रम में ही किया। प्रातःकाल ऋषि की परिक्रमा करके राम बोले, "हे महर्षि! हमारा विचार दण्डक वन में निवास करने वाले ऋषि-मुनियों के दर्शन करने का है। हमने सुना है कि यहाँ ऐसे अनेक ऋषि-मुनि हैं जो सहस्त्रों वर्षों से केवल फलाहार करके दीर्घकालीन तपस्या करते हुये सिद्धि को प्राप्त कर चुके हैं। ऐसे महात्माओं के दर्शनों से जन्म-जन्मान्तर के पाप नष्ट हो जाते हैं। इसलिये आप हमें वहाँ जाने की आज्ञा दीजिये।"

राम की विनीत वाणी सुनकर महात्मा ने आशीर्वाद देकर प्रेमपूर्वक उन्हें विदा किया और कहा, "हे राम! तुम्हारा मार्ग मंगलमय हो। वास्तव में यहाँ के तपस्वी अथाह ज्ञान और भक्ति के भण्डार हैं। उनके अवश्य दर्शन करो। इस वन का वातावरण भी तुम्हारे सर्वथा अनुकूल है। इसमें तुम लोग भ्रमण करके अपने वनवास के समय को सार्थक करो। इससे सीता और लक्ष्मण का भी मनोरंजन होगा।"