07 अप्रैल 2010

माता-पिता की सेवा सबसे बड़ा धर्म

हिंदू धर्म में माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी सेवा माना गया है । शास्त्र-मातृ देवो भव, पित्र देवो भव आदि सम्मानित वचनों से देवताओं के समान पूजनीय मानते हैं । माता का स्थान तो पिता से

अधिक माना गया है- जननी और जन्म-भूमि को तो स्वर्ग से भी श्रेष्ठ कहा गया है ।
प्रत्यक्ष में माता और पिता के द्वारा ही संतान के शरीर का निर्माण होता है। अतः शरीर देने वाले सबसे पहले देवता माता-पिता ही है । माता संतान का पालन-पोषण करने के लिए नौ-दस तक कष्ट

सहती है और अपने विचारों से संस्कार-संपन्न संतान को जन्म देती है, इसीलिए माता-पिता संसार में सर्वाधिक पूजनीय है ।

माता-पिता की इस सेवा के लिए ही हिंदू धर्म में पितृ-ऋण की व्यवस्था है। इस ऋण को चुकाए बिना अथवा माता की अनुमति के बिना पुत्र को गृहस्थ जीवन से विमुख होने की आज्ञा नही हैं।
संन्यास ग्रहण करने के लिए भी इस ऋण से मुक्त होना आवश्यक है।

ज्ञान पाने की दृष्टि से यद्यपि गुरू का बडा महत्व है,लेकिन माता को बच्चे की पहली गुरू कहकर सम्मानित किया गया है। मनुस्मृति में स्पष्ट व्यवस्था दी गई है कि-

उपाध्यायान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता ।
सहस्रं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते ॥

अर्थात्‌ उपाध्यायों सें दस गुना श्रेष्ठ आचार्य, आचार्य सें सौ गुना श्रेष्ठ पिता और से हजार गुना श्रेष्ठ माता गौरव से युक्त होती है।

इस श्रेष्ठता का कारण मनु लिखते है-

यं मातापितरौ क्लेशं सहेते संभवे नृणाम्‌ ।
न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्तु वष्शतैरपि ॥

अर्थात्‌ प्राणियों की उत्पति में माता-पिता को जो क्लेश सहन करना पड़ता है,उस क्लेश से वे (प्राणी) सौ वर्ष में भी निस्तार नही पा सकते । इसलिए मनु ने माता-पिता और गुरू इन तीन को सदा सेवा

से प्रसन्न रखने के निर्देश दिए हैं। यह व्यवस्था जीवन के सत्य और लक्ष्य को पाने के लिए भी आवश्यक है-
प्राणियों की भक्ति से इस लोक का, पिता में भक्ति से मध्य लोक का और गुरू में भक्ति से ब्रह्म लोक का सुख प्राप्त होता है। जिन पर इन तीनों की कृपा होती है, उनको सभी धर्मों का सम्मान मिलता है

और जिन पर माता-पिता तथा गुरू की कृपा नही होती, उन्हें किसी धर्म के पालन सें सम्मान नही मिलता। उनके सभी कर्म निष्फल होते है। अतः जब तक माता-पिता और गुरू जीवित रहे, तब तक

उनकी सेवा ही करें और किसी अनुष्ठान की आवश्यकता नही है। यही कर्तव्य है, यही साक्षात्‌ धर्म है।

माता-पिता की महता का उल्लेख शिवपुराण में यूं मिलता है-

पित्रोश्च पूजनं कृत्वा प्रकान्तिं च करोति च।
तस्य वै पृथिवीजन्यफलं भवति निश्चितम्‌॥
अपहाय गृहे यो वै पितरोतीर्थमाव्रजेत्‌।
तस्य पापं तथा प्रोफं हनने च तयोर्यथा॥
पुत्रस्य च महतीर्थ पित्रोश्चरणपंकजम्‌।
अन्यतीर्थ तु दूरे वै गत्वा सम्प्राप्यते पुनः॥
इदं संन्निहितं तीर्थ सुलभं धर्मसाधनम्‌।
पुत्रस्य च स्त्रियाश्चैव तीर्थ गेहे सुशोभनम्‌॥

अर्थात्‌ जो पुत्र माता-पिता की पूजा करके उनकी प्रदक्षिणा करता है, उसे पृथ्वी परिक्रमाजनित फल सुलभ हो जाता है। जो माता-पिता को घर पर छोड़कर तीर्थयात्रा के लिए जाता है, वह माता-पिता की हत्या से मिलने वाले पाप का भागी होता है, क्योकि पुत्र के लिए माता-पिता के चरण-सरोज ही महान तीर्थ है। अन्य तीर्थ तो दूर जाने पर प्राप्त होते है, परंतु धर्म का साधन भूत यह तीर्थ तो पास मे ही सुलभ है। पुत्र के लिए (माता-पिता) और स्त्री के लिए (पति) सुंदर तीर्थ घर में ही वर्तमान है।
शास्त्रो की इस प्रकार की आज्ञा पालन करने वाले पुत्र के रूप में श्रवण कुमार अमर है। भगवान्‌ श्रीराम माता और पिता की आज्ञा मानकर ही एक आदर्श पुत्र के रूप में चौदह वर्ष तक वनवास में रहे।

अतः शास्त्र और महापुरूषो के चस्त्रि से प्ररेणा लेकर संतान को सदैव माता-पिता की सेवा को ही सबसे उंचा स्थान देना चाहिए ।