07 अप्रैल 2010

अरण्य संस्कृति का प्रतीक कल्पवास

संगम पर मकर संक्रांति और माघ में कल्पवास की परंपरा अनंत काल से है। यह ऐसी साधना है, जिसके जरिये तीर्थराज प्रयाग में कल्पवासी महीने भर के लए अपने सांसारिक सुख-दुःख, माया-मोह, हानि-लाभ की चिंता छोड़कर सिर्फ परलोक के बारे में सोचता है। वह संयम और साधना के जरिये माया मोह छोड़ने का अभ्यास करता है।
इस अभ्यास में वह अपने स्वरुप को पहचाने की कोशिश करता है।

कल्पवास का अनुशासन : कल्पवास करने वाले गृहस्थ संगम तट पर साधु सन्यासियों के संपर्क में आते हैं। वे भजन, पूजन, कीर्तन, हवन, यज्ञ,धर्म ग्रंथों की याद में समय गुजारते हैं। वे भूमि पर सोते, सिर्फ एक समय अन्न या फल का आहार करते और तीन बार संगम स्नान और संध्या वंदन करते हैं। उनकी जीवन शैली त्याग और वैराग्य की और उन्मुख हो जाती है। वे कडाके की ठण्ड और जाडॆ की वर्षा सहन करते हैं।

कल्पवास का विधान हमारे समाज का नियंत्रण करने वाले ऋषियों और चिंतकों ने बहुत सोच समझ कर किया था। यह हजारों वर्ष पहले उस जमाने की दें है, जब तीर्थराज प्रयाग में कोई शहर नहीं था। गंगा-जमुना के आसपास सिर्फ घना वन था। पुस्तकों में इसे प्रयाग वन कहा गया है। इसमें अनेक ऋषि, महर्षि, दार्शनिक, चिन्तक, भोगी, सन्यासी साधना करते थे। इसके केंद्र में पवित्र अक्षयवट था, जिसे ऋषि और प्रलय का शाक्षी माना जाता है। कल्पवास हमारी वेदकालीन अरण्य संस्कृति की दें है।

गंगाजल, बालू और मिटटी ही प्रसाद: कल्पवा के अवधि और चन्द्र पंचांग से तय की जाती है। कई कल्पवासी मकर संक्रांति से कुम्भ संक्रांति तक संगम क्षेत्र में साधना करते हैं, पर ज्यादातर पौष पूर्णिमा से माघ पूर्णिमा तक यहाँ रहते हैं। कल्पवास संपन्न होने हवन, यज्ञ, दान और भोज आयोजित किया जाता है। घर लौटते समय वे अपने साथ सिर्फ गंगाजल, गंगा की बालू और पवित्र मिटटी प्रसाद के रूप में ले जाते हैं।

बदलते दौर के साथ कल्पवास में भी बदलाव आया है। कल्पवासी पहले फूस की झोपड़ियों में रहते थेअब वे खूबसूरत तम्बुओं में रहते हैं। कल्पवास का स्वरुप भले ही बदला हो, लेकिन उसकी आत्मा नहीं बदली है। यह ताप और त्याग के अभ्यास के एक जरिया है। कल्पवास हमारी त्याग मूलक संस्कृति का एक सबक है।