20 मार्च 2010

इंसानियत का पैगाम माह-ए-रमजान

रमजानुल मुबारक का मुकद्दस माह इस्लामी कैलेंडर का नवाँ महीना है। हर साल इस माह में रोजे रखना मुसलमानों पर नाजिल फर्जों में से एक अहम फर्ज है।

आज से पूरे माह हर बालिग और सेहतमंद मुसलमान पर रमजानुल मुबारक के रोजे रखना फर्ज करार दिया गया है। हदीस के मुताबिक इस मुबारक माह में जन्नात के दरवाजे खुल जाते हैं और शैतान कैद हो जाता है।

अर्श से फर्श तक नेकियों और रहमतों की बारिश का ऐसा पुरजोर सिलसिला शुरू होता है जिसका हर मुसलमान को बेसब्री और बेकरारी से इंतजार रहता है।

हदीस शरीफ में फर्माया गया है कि रमजान हजरत मोहम्मद सल्लल्लाह अलैहवसल्लम की उम्मत का महीना है। इस माह रोजे रखने वालों को बेइंतहा सवाब (पुण्य) मिलता है और इन दिनों में जो मुसलमान शिद्दत के साथ खुदा तआला की इबादत और कलामपाक की तिलावत करेगा उसके गुनाह ऐसे धुल जाएँगे जैसे साफ पानी में गंदा कपड़ा धुल जाता है।

यह रिवायत है कि रोजे रखने वाले मुसलमान कयामत के दिन अल्लाह के नेक बंदों की शक्ल में पहचाने जाएँगे। रमजानुल मुबारक का यह माह इंसानी शैतानियत को काबू में करने का सबसे बेहतरीन वक्त होता है।

पूरे साल भर गुनाह करने वाले इंसान के मन में भी रमजान के मुकद्दस दिनों में यही खयाल बना रहता है कि उसे अपने किए कामों का खुदा को जवाब देना है। यानी रमजानुल मुबारक गुनाहों को न करने की नसीहत देकर इंसान को अपने आमाल अखलाक (सदाचार) पर गौरकरने का मौका देता है।

रमजान का यह पाक और नेकियों भरा माह इंसानी नफ्स (मानवेंद्रियों) को काबू करने की तालीम देता है। साथ ही भूखे की भूख व प्यासे की प्यास को जानने समझने की नसीहत देकर इंसानी फर्ज की याद दिलाता है।

दरअसल रोजेदार मुसलमान के जहन पर खुदा की खुदाबंदी और अपनी बंदगी का एहसास होना ही रमजान का असल मकसद है। इन दिनों में रोजेदार बंदा खुदा की बंदगी में अपने आपको इतना मसरूफ और मारूफ कर ले कि उसकी तमाम बुराइयाँ और शैतानी खयालात हमेशा के लिए उसकी जिंदगी से निकल जाएँ, यही मकसद है।

इस प्रकार यह माह इंसान को इंसानियत का पैगाम देकर प्यार-मोहब्बत, भाई-चारे, आपसी खलूसी और इंसान को इंसान के लिए मददगार बनने की राह दिखाता है, जिसकी आज सख्त जरूरत है।

रमजान माह में अल सुबह (सादिक के वक्त) सूरज निकलने के पहले से लेकर शाम को मगरिब की अजान (सूर्यास्त) होने तक कुछ भी खाने-पीने की हसरत करना तक हराम करार दिया गया है।

रोजा अफ्तार करने के बाद ही खाना-पीना जायज है। इसमें गौरतलब बात यह है कि सिर्फ खाना-पीना छोड़ देना अर्थात भूखा रहने का नाम रोजा नहीं और खुदा भी 'सिर्फ भूखे' से खुश नहीं।

खुदा तो उन रोजेदारों से खुश रहता है जो रोजे के अरकानों को पूरी अकीदत और ईमान के साथ अदा करते हैं। रोजे की हालत में यह जरूरी है कि रोजेदार हर बुराई से अपने को दूर रखकर रोजे की नफासत और पाकीजगी को पुख्ता करे।

सच्चाई की राह पर चलते हुए गिड़गिड़ाकर खुदा से अपने गुनाहों की माफी माँगे और साथ ही खुदा को हाजिर-नाजिर मानकर यह भी अहद करे कि आइंदा गुनाह में शुमार होने वाले काम हम कभी नहीं करेंगे। रोजेदार पाँचों वक्त की पाबंदी के साथ नमाज अदा करें।

रमजान के दिनों में पाँचों वक्त (फजर, जोहर, असर, मगरिब और इशा) की नमाजों के अलावा इशा की नमाज के साथ बीस रकाअत नमाज तराबीह के तौर पर अदा करना लाजिम है।

यह नमाज जहाँ तक मुमकिन हो हाफिजे कुरआन की इमामत में पढ़ना सबसे अफजल होती है जिसमें हाफिज कुरआन को बिना देखे ही पढ़कर सत्ताईस रमजान की शब में एक कुरान मुकम्मल सुनाते हैं।

रमजान के दिनों में एक ओर जहाँ बुराइयों से परहेज किया जाता है वहीं दूसरी ओर इंसानी नेकियों को अमल में लाना भी हर मुसलमान के लिए बेहद जरूरी है। इसलिए हर इंसान को चाहिए कि वह इंसानियत के रिश्ते को मजबूत करते हुए रमजानुल मुबारक की नेकियों और रहमतों से पूरी दुुनिया की इंसानी कौम को सराबोर करे जिससे इंसानियत का सर शिद्दत और खानी के साथ सदा बुलंद रहे, जिससे अमन की फिजा हमारे मुल्क को नई ताजगी से खुशगवार बना सके।