31 मार्च 2010

लोभ


कुमुद्वती राज्य की सरहदों पर प्रवाहित होनेवाली कुमुदिनी नदी तट पर सुप्रसिद्ध सोमशेखर मुनि का आश्रम हुआ करता था। गुरुकुल को चलानेवाले सोमशेखर मुनि शिष्यों को ध्यान की पद्धतियों के साथ-साथ चित्र लेखन भी सिखाया करते थे। वे चित्रलेखन के सिद्धहस्त कलाकार थे। अतः कलाओं में अभिरुचि रखनेवाले संपन्न लोग सुदूर प्रांतों से वहाँ आया करते थे और उनका माँगा शुल्क चुकाकर अपना चित्र बनवाकर ले जाते थे।

मुनि जिन चित्रों को बनाते थे, उनके लिए रक़म वसूल करने के विषय में बहुत ही सावधानी बरतते थे। इसपर लोगों को आश्चर्य भी होता था। कुछ लोग तो यह कहने में भी संकोच नहीं करते थे कि एक मुनि को इतना धन वसूल करना शोभा नहीं देता।

लोगों की इन टिप्पणियों की वे परवाह नहीं करते थे और उन्होंने चित्रलेखन द्वारा धन वसूल करने में कोई शिथिलता नहीं दिखायी।

एक दिन सजायी गयी सुंदर बग्घी में राजनर्तकी शुभांगी मुनि से मिलने आयी और उनसे अपना चित्र बनवाने की इच्छा प्रकट की।

‘‘अच्छी बात है। क्षणों में तुम्हारा चित्र बनाता हूँ। परंतु इसके लिए तुम्हें ज्यादा रक़म चुकानी होगी।'' मुनि ने कहा।

‘‘कोई बात नहीं। आप जितना माँगेंगे, दूँगी। कहिये, आपको कितना चाहिये?'' राजनर्तकी ने पूछा।

‘‘अपने स्तर के योग्य कितना दे सकोगी, तुम्हीं बताना,'' मुनि ने पूछा।

‘‘क्या सौ अशर्फियाँ पर्याप्त होंगी?'' उसने पूछा।

नर्तकी ने समझा कि यह सुनकर मुनि बेहद खुश होंगे।

‘‘दो सौ अशर्फियाँ,'' मुनि ने बिना हिचकिचाये कहा ।

मुनि की माँग जानकर नर्तकी अवाक् रह गयी। पर अपने को संभालती हुई उसने कहा, ‘‘यह तो बड़ी रक़म है। मुनियों को इतना बड़ा लोभ शोभा नहीं देता।''

‘‘इसमें सौदे की कोई गुंजाइश नहीं। जो रकम मैंने माँगी, उसे पहले ही चुकाना होगा। इसके बाद ही चित्र बनाने का काम शुरू करूँगा। मेरी शर्त तुम्हें स्वीकार नहीं है तो तुम जा सकती हो।'' मुनि ने स्पष्ट कह डाला।

मुनि की इन बातों से नर्तकी के स्वाभिमान को धक्का लगा। जिस काम के लिए आयी, उसे पूरा किये बिना लौटना वह क़तई नहीं चाहती थी। उसने दो सौ अशर्फ़ियाँ उनके सामने रखीं और कहा, ‘‘लीजिये, नीचे खड़ी हो जाती हूँ, चित्र बनाना।'' कहकर वह सामने के पेड़ के नीचे नृत्य भंगिमा में खड़ी हो गयी।

मुनि ने ध्यान से उसे नख से शिख तक देखा और चित्र बनाने में मग्न हो गया। थोड़ी ही देर में उन्होंने वह चित्र उसे दे दिया ।

चित्र को देखकर राजनर्तकी ने कहा, ‘‘निस्संदेह ही चित्र बहुत अच्छा बना है। पर इसे बनाने के लिए आपने जो रक़म मुझसे वसूल की वह बहुत ज्यादा है। इतनी रक़म जमा करके मरते समय आप क्या अपने साथ ले जायेंगे?'' कहती हुई तेजी से बग्घी में बैठकर निकल पड़ी।

चित्र बनाने का मुनि का काम जारी रहा और वे धन भी कमाते रहे । पर एक दिन, उन्होंने अचानक चित्र बनाने का काम रोक दिया और शिष्यों को ध्यान पद्धतियों को सिखाने में लग गये। जब राजनर्तकी को इसका पता चला तो वह इस परिवर्तन का कारण जानने के लिए आश्रम आयी।


पिछली बार जब वह आश्रम आयी थी तब रास्ता ऊबड-खाबड था, कंकडों और पत्थरों से भरा हुआ था, अस्तव्यस्त था, पर अब रास्ता बिलकुल साफ-सुथरा था। वह वैशाख पौर्णमी का दिन था।

आश्रम के प्रांगण में एक विशाल मंडप को देखकर उसे आश्चर्य हुआ। मंडप के बीचों-बीच सोमशेखर का प्रधान शिष्य बैठा हुआ था और वह शिष्यों व भक्तों को संबोधित करते हुए भाषण दे रहा था।

‘‘भानु प्रकाशनंद स्वामी की प्रबल इच्छा थी कि एक ध्यान मंदिर का निर्माण करूँ। परंतु उनकी इच्छा की पूर्ति के पहले ही उनका निधन हो गया। परंतु हमारे गुरुवर सोमशेखर स्वामी ने ध्यान मंदिर के निर्माण को अपना लक्ष्य बनाया और इसके लिए उन्होंने अनवरत परिश्रम किया। लोगों ने उन्हें लोभी, स्वार्थी कहा, पर उन्होंने इस लोक निन्दा की परवाह नहीं की। अपने चित्रलेखन के द्वारा धनार्जन किया और अपने गुरु की इच्छा पूरी की। अगली पीढ़ियों के लिए उपकार करके तपस्या करने वे अरण्य चले गये। उनकी कितनी ही प्रशंसा क्यों न करें, वह कम है। उन्हीं के कारण यह साफ-सुथरा मार्ग बना, यह ध्यान मंदिर बना। हम उनके ऋणी हैं।''

इन बातों को सुनते ही राजनर्तकी की आँखों में आँसू उमड़ आये। उसका मन पश्चाताप से भर गया। उसने उस मुनि को लोभी समझ लिया था जो इतने महान आत्मा और परोपकारी थे। उसे अपनी ग़लती महसूस हुई। मन ही मन उसने मुनि से क्षमा माँगी। इसके बाद उसने अपना कंठहार, सोने की चूडियाँ निकालीं और ध्यान मंदिर को भेंट के रूप में समर्पित कर दिया । अब उसका मन प्रशांत था; उसके विचार पवित्र थे । वहाँ से वह चल पड़ी।