30 मार्च 2010

फाँसी का फन्दा किसके लिए


एक जंगल में एक ऋषि का एक प्रसिद्ध गुरुकुल था जिसमें देश के कोने-कोने से विद्यार्थी विद्याध्ययन के लिए आते थे। विद्यार्थियों में अनेक राज्यों के राजकुमार भी होते थे जो बिना किसी विशेष सुविधा के सामान्य छात्रों के समान ही रहते थे। गुरु सब के साथ एक समान व्यवहार करते थे। सामान्य रूप से छात्र पाँच वर्षों तक वहाँ विद्या अध्ययन करते और उसके बाद अपने घर या राज्य में वापस चले जाते। उसी समय गुरुअपने शिष्यों में से चुने हुए एक शिष्य को अपने साथ लम्बी तीर्थ यात्रा पर ले जाते। तीर्थयात्रा से लौटने के बाद नये छात्रों के साथ नये सत्र का आरम्भ करते।

एक साल गुरु सत्यानन्द ने प्रताप नामक अपने एक शिष्य को अपने साथ यात्रा पर ले जाने का निश्चय किया। उन्होंने उससे पूछा, ‘‘प्रताप, मैं तीर्थयात्रा पर जा रहा हूँ, जहाँ मन्दिरों के दर्शन के साथ भि-भि राज्यों के राजाओं से भी मिलकर उन्हें शासन सम्बन्धी सलाह दूँगा। क्या तुम मेरे साथ चलना पसन्द करोगे?''

प्रताप अभी पन्द्रह वर्ष का ही था। उसने सोचा कि गुरु के साथ कुछ दिन और रहने का सौभाग्य मिल रहा है, इसलिए इसका लाभ उठाना चाहिये। वह प्रसतापूर्वक तैयार हो गया।

एक दिन प्रातःकाल गुरु और शिष्य यात्रा केलए निकल पड़्रे। प्रचलित प्रथा के अनुसार यात्रा के दौरान चलते समय बातचीत करना मना था। लेकिन मार्ग में कोई दर्शनीय या विचारणीय वस्तु या दृश्य मिलने पर उसका निरीक्षण करना शिष्य के लिए अपेक्षणीय था। गुरु से इसका स्पष्टीकरण शिष्य तभी करता था जब कहीं वे रुककर विश्राम करते थे। विश्राम के समय गुरु या तो शिष्य से प्रश्न करता था या शिष्य के प्रश्नों का उत्तर देता था। इस प्रकार विश्राम का समय दोनों आनन्द के साथ काट लेते।

वे किसी मन्दिर के दर्शन करते तो उस गाँव के लोगों का आतिथ्य स्वीकार कर उनके पास एक-दो दिन ठहर जाते। और जब वे किसी राजधानी से होकर गुजरते तो वहाँ के राजा से मिलकर शासन सम्बन्धी समस्याओं पर विचार-विमर्श करते। पर उनका आतिथ्य स्वीकार न कर पुनः यात्रा पर चल पड़ते।

जब

एक बार ये दोनों गुरु-शिष्य-ऋषि सत्यानन्द और प्रताप, बोधपुरी राज्य की राजधानी में पहुँचे। जब वे महल में राजा से मिलने जा रहे थे, तब लोगों से उन्हें मालूम हुआ कि वहाँ का राजा महामूर्ख है। उसकी हर हरकत मूर्खतापूर्ण होती है। वह मूर्खों को अपना मंत्री बनाता है और उन्हें ऊँचे वेतन देता है। उसके दरबार के बुद्धिमान लोगों को इतना कम वेतन दिया जाता है कि उनके परिवार को भर पेट भोजन नहीं मिलता। इसलिए वे भ्रष्टाचार से धन कमाते हैं जो राजा को मालूम नहीं होता। राजा का हुक्म है कि हर चीज-चाहे वह सब्जी, कपड़ा, जूता हो या टेबुल-कुर्सी- एक दाम पर बेचो। उसने गरीबों पर यह कह कर जुर्माना कर दिया कि तुम मूर्ख हो और बीमार पड़नेवाले लोगों को अर्थदण्ड की सजा इसलिए दी कि तुम काम पर क्यों नहीं जाते।

राजा के बारे में यह सब सुनकर, प्रताप ने, जो राज परिवार का था, गुरु से कहा, ‘‘गुरु जी, हमलोगों को इस राजा से नहीं मिलना चाहिये और महल की ओर भी नहीं जाना चाहिये। इस मूर्ख राजा से बात करने पर हो सकता है कि हम परेशानी में पड़ जायें। हमलोग लौटकर मार्ग बदल दें तो अच्छा रहेगा।''

परन्तु गुरु के विचार कुछ और थे। उसने कहा, ‘‘यह कैसे कह सकते हैं कि जो कुछ हमने सुना है, वह सच है? हमें स्वयं इसकी सचाई का पता लगाना चाहिये।''

जब वे महल के मुख्य द्वार पर पहुँचे तब उन्हें द्वारपालों ने कहा कि राजा दरबार कर रहे हैं और आप चाहें तो दरबार में जाकर राजा से आज्ञा ले सकते हैं। गुरु ने जब कहा कि वे गुरुकुल के ऋषि हैं और साथ में उनका शिष्य है तब द्वारपालों ने उन्हें दरबार में जाने की अनुमति दे दी।

अन्दर दो औरतें राजा से अनुरोध कर रही थीं। एक औरत ने कहा, ‘‘महाराज, हमारे पति चोर हैं। वे एक व्यापारी के घर में, उसकी अनुपस्थिति में, सेन्ध लगा रहे थे।

ढह गई और...।'' औरत यह कहते-कहते भावुक हो उठी और रो पड़ी। दूसरी औरत ने वाक्य पूरा किया, ‘‘...और हम दोनों के पति दीवार के ढहने से उसके नीचे दबकर मर गये। यदि दीवार मजबूत होती तो हमारे पति नहीं मरते। व्यापारी को, इसके लिए सजा मिलनी चाहिये और हमलोगों को उसे भारी मुआवजा देनी चाहिये।''
दीवार

राजा ने आज्ञा दी, ‘‘व्यापारी को उपस्थित करो।'' यह सुनकर दोनों औरतों ने एक दूसरे को सान्त्वना दी।

शीघ्र ही व्यापारी को दरबार में पेश किया गया। ‘‘महाराज, मेरी गलती से दीवार नहीं गिरी। पिछले वर्ष मैंने राजमिस्त्री को घर की मरम्मत के लिए बुलाया था। लेकिन लगता है कि उसने ठीक से घर की मरम्मत नहीं की। इसलिए यह राजमिस्त्री की गलती है।'' व्यापारी ने अपनी सफाई में कहा।

‘‘राजमिस्त्री को पेश करो।'' राजा ने आज्ञा दी। राजमिस्त्री आते ही राजा के पैरों पर गिरकर बोला, ‘‘महाराज, इसमें हमारी क्या गलती है? मशकवाले ने गारे में ज़्यादा पानी डाल दिया, इसीलिए दीवार कमजोर हो गई। अतः यह गलती मशकवाले की है।''

राजा क्रोध में कड़क कर बोला, ‘‘दुष्ट मशकवाले को पकड़ कर लाओ।''

मशकवाला राजा के सामने खड़ा होकर कुछ कहनेवाला था, परन्तु राजा धीरज खो चुका था। उसने कहा, ‘‘इसे ले जाकर फाँसी पर चढ़ा दो।''

यह सुनकर दरबार का हर आदमी हक्का-बक्का रह गया। ‘‘यह कैसी बेइन्साफी है!'' सब बड़-बड़ाने लगे, लेकिन राजा को सुनाई नहीं पड़ा।

शिष्य दरबार की इन हरकतों को देख कर भौचक्का रह गया। उसने गुरु के कानों में धीमे से कहा, ‘‘गुरु जी, हमलोगों को जल्दी यहाँ से खिसक जाना चाहिये। भगवान ही जानता है कि आगे वह क्या नहीं कर बैठे!''

‘‘नहीं प्रताप'', गुरु ने कहा, ‘‘यदि मैं राजा के मन में कुछ ज्ञान की बातें न डाल सका तो मैं अपने कर्त्तव्य से चूक जाऊँगा।''

ऋषि ने दूसरे क्षण राजा की ओर मुड़कर उसे सम्बोधित करते हुए कहा, ‘‘महाराज, जरा क्षण भर के लिए विचार कीजिये। क्या आप मशकवाले के साथ अन्याय नहीं कर रहे हैं?''

चकित होकर बोला, ‘‘तुम यह कहनेवाले कौन हो कि मैं न्याय कर रहा हूँ अथवा अन्याय। मैं तुम्हारी यह धृष्टता बर्दाश्त नहीं कर सकता।''
राजा

फिर क्रोध में चिल्लाकर सिपाहियों से कहा, ‘‘इसे ले जाओ और मशकवाले के बदले फाँसी पर चढ़ा दो।''

दो सैनिक ऋषि को पकड़कर ले जाने लगे। शिष्य भी उसके साथ साथ जाने लगा। वह गुरु के कानों में कुछ फुसफुसाया। अचानक राजा की ओर मुड़ कर ऋषि बोला, ‘‘कृपया फाँसी से पहले हमारी आखिरी इच्छा पूरी कर लेने दीजिये।''

‘‘तुम्हारी आखिरी इच्छा क्या है? मैं उसे अवश्य पूरी करूँगा।'' राजा ने कहा।

‘‘महाराज, क्या मैं अपने शिष्य से बात कर सकता हूँ।'' ऋषि ने अपनी अन्तिम इच्छा बताई। राजा ने संकेत से उसे अपने शिष्य से मिलने की स्वीकृति दे दी।

शिष्य से बात करने के बाद ऋषि ने राजा से कहा, ‘‘महाराज, मेरे शिष्य ने अपनी अन्तर्दृष्टि से देखा कि स्वर्ग के अधीश्वर अपने रथ में सवार नीचे धरती पर उतर रहे हैं। उन्होंने मेरे शिष्य से कहा, ‘तुम्हारा गुरु निर्दोष है। इसलिए मैं उसे स्वर्ग ले जाने के लिए स्वयं आया हूँ।' महाराज, यदि आप मुझे फाँसी पर लटका दें तो मैं प्रसता के साथ स्वर्ग चला जाऊँगा।''

राजा इस पर क्रोधित हो उठा। उसने कहा, ‘‘वैकुण्ठाधीश तुम्हारे लिए क्यों आयेंगे, मेरे लिए क्यों नहीं? मैं एक राजा हूँ और तुम केवल एक ऋषि हो। इसलिए तुम्हारे स्थान पर मैं फांसी पर लटकूँगा और वैकुण्ठ जाऊँगा।'' इतना कहकर वह फाँसी के तख्ते पर आ गया जहाँ जल्लाद फाँसी का फन्दा तैयार कर रहा था।

किन्तु जल्लाद मूर्ख राजा से कहीं अधिक बुद्धिमान था। काँपते हुए हाथों के साथ वह बोला, ‘‘महाराज, आप के सिर के लिए फाँसी का फन्दा बहुत छोटा है।'' राजा निराश होकर अपने सिंहासन पर चला गया।
ऋषि शिष्य से बोला, ‘‘प्रताप, राजा को सुधारने की कोशिश करना व्यर्थ है। इस संसार में कुछ जन्मजात मूर्ख होते हैं, कुछ परिस्थितियों के कारण मूर्ख हो जाते हैं, कुछ अन्य लोग धूर्त व्यक्तियों के द्वारा मूर्ख बनाये जाते हैं। चलो, देखते हैं कि दुनिया में क्या कम से कम कुछ बुद्धिमान लोग भी रहते हैं?''

कहानी का शेषांश आप की कल्पना पर छोड़ दिया जाता है।