30 मार्च 2010

भाग्य का खेल


हेलापुरी की दुर्गा सुसंपन्न गृहिणी थी। रघुनाथ उसका इकलौता बेटा था। पति के देहांत के बाद उसने उसे बड़े लाड़-प्यार से पाला-पोसा।

बालिग होने पर वह उसका विवाह कर देना चाहती थी। सुगंधिपुर के निवासी नारायण की पुत्री सिंधूर को देखते ही रघुनाथ उसपर लट्टू हो गया। वह बड़ी ही सुंदर व सुशील कन्या थी।

पर, नारायण अमीर नहीं था। वह दहेज देने की स्थिति में नहीं था। दुर्गा को यह रिश्ता पसंद नहीं था, क्योंकि वे दहेज दे नहीं सकते थे। पर रघुनाथ ने जिद की कि अगर शादी करूँगा तो सिंधूर से ही करूँगा। दुर्गा ने साफ़-साफ़ बता दिया कि किसी भी हालत में यह शादी हो नहीं सकती। रघुनाथ माँ का विरोध नहीं कर सका और चुप रह गया। परंतु, वह अपने मन से सिंधूर को निकाल नहीं पाया।

ऐसी परिस्थिति में नारायण का रिश्तेदार सत्तर साल का व्यवहार दक्ष वृद्ध श्रीकर दुर्गा से मिलने आया। अपना परिचय दे चुकने के बाद उसने दुर्गा से कहा, ‘‘सिंधूर का पिता नारायण मेरा आत्मीय बंधु है। चूँकि उसकी कोई जायदाद नहीं है, इसलिए उसकी बेटी से अपने बेटे की शादी करवाने से आप इनकार कर रही हैं। मैं आपको एक रहस्य बताना चाहूँगा। सिंधूर को उसकी मौसी की तरफ़ से बहुत बड़ी जायदाद मिलनेवाली है। सिंधूर के गले में जैसे ही आपका बेटा मंगलसूत्र पहनायेगा, उसके दूसरे ही क्षण बीस लाख रुपयों से अधिक रक़म उसकी हो जायेगी। इससे ज्यादा मैं और कुछ कहना नहीं चाहता।’’

यह सुनते ही दुर्गा खुशी से फूल उठी। उसने सोचा कि सिंधूर की धनिक मौसी ने अवश्य ही इस विषय में वसीयत लिखी होगी। दुर्गा ने श्रीकर को ध्यान से देखते हुए कहा, ‘‘आप वृद्ध हैं, बडे हैं।

मुझे पूरा-पूरा विश्वास है कि आप झूठ नहीं कहेंगे। परंतु याद रखियेगा, आपने जैसा कहा, वैसा नहीं हुआ तो विवाह रद्द करने से भी मैं पीछे नहीं हटूँगी। नारायण से कह दीजिये कि वह विवाह की तैयारियॉं शुरू कर दे।’’


इसके पंद्रह दिनों के अंदर ही, सिंधूर का विवाह रघुनाथ से धूमधाम से हो गया। लोग दुर्गा की उदारता की प्रशंसा किये जा रहे थे। नारायण के रिश्तेदार खुद उससे मिलकर उसकी तारीफ़ के पुल बांधने लगे।
नारायण से जितना हो सकता था, उसने दिया और बेटी सिंधूर को ससुराल भेजा। पर दुर्गा की आँखों को वे बीस लाख रुपये ही दिखायी दे रहे थे। इसलिए उसने इसपर ग़ौर ही नहीं किया कि नारायण ने बेटी को क्या दिया और क्या नहीं दिया। देखते-देखते एक महीना गुज़र गया। सिंधूर की मौसी की वसीयत की धन-राशि अब तक प्राप्त न होने के कारण दुर्गा ने श्रीकर को सुगंधिपुर से बुलवाया। उसके आते ही दुर्गा ने कड़े स्वर में उससे पूछा, ‘‘तुमने बताया था कि मेरा बेटा रघुनाथ जैसे ही सिंधूर के गले में मंगलसूत्र पहनायेगा, उसके दूसरे ही क्षण उसकी मौसी की जायदाद उसे मिल जायेगी, पर अब तक ऐसा नहीं हुआ। क्यों? तुम्हारा क्या कहना है?’’

इस पर श्रीकर ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘दुर्गाजी, मैंने कहा था कि बहू हो जाते ही सिंधूर की सास यानी आप से बीस लाख रुपये मिल जायेंगे। लगता है आपने मेरा मनोभाव नहीं समझा। सिंधूर की मॉं नहीं रही। आप मॉं नहीं सही, पर मौसी के समान तो हैं न! अब सिंधूर ग़रीब नारायण की बेटी नहीं, संपन्न सास यानी मौसी दुर्गा की बहू है।’’

यह सुनते ही दुर्गा स्तब्ध रह गयी। इसके लिए किसी की निंदा नहीं कर सकते। फिर मन ही मन उसने सोचा, ‘लाखों रुपये भले ही न मिले, पर बेटे की इच्छा तो पूरी हुई। गुणवती कन्या उसकी बहू बनी। इससे बढ़कर और क्या चाहिये।’ अपने भाग्य पर खुश होती हुई दुर्गा ने मन ही मन श्रीकर की अ़क्लमंदी की प्रशंसा की और इसे भाग्य का खेल समझा।