30 मार्च 2010

राजा ने अपना सबक सीखा

राजा दिनोदिन राजकुमार से अधिक परेशान रहने लगा । यह इस प्रकार हुआः

राजा के दो बेटे थे। दूसरे बेटे को उसके निःसन्तान मामा ने गोद लिया । किन्तु दस वर्ष बाद राजा का प्रथम पुत्र संन्यास लेकर दूर पर्वतों में किसी आश्रम में चला गया। तब तक इधर मामा के घर एक पुत्र ने जन्म लिया। इसलिए गोद लिया हुआ बेटा अपना घर वापस लौट आया ।

सम्भवतः राजकुमार को, उसके प्रति किया गया यह व्यवहार अपने घर से निकाल दिया जाना और जहाँ उसे भेजा गया था वहाँ से भी अवांछित हो जाना - अच्छा नहीं लगा। वह एक कठिन बालक साबित हुआ। वह शायद ही मुस्कुराता, शायद ही किसी से बात करता और यहाँ तक कि उसने पढ़ने-लिखने से इनकार कर दिया। वह सबके साथ रूखा हो गया ।

राजा ने उसे पढ़ाने के लिए अनेक विद्वानों को शिक्षक नियुक्त किया। लेकिन उनमें से किसी को भी उसे पढ़ाने में सफलता नहीं मिली। शिक्षक बालक में आज्ञापालन की प्रेरणा भरने के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद सभी साधनों का प्रयोग करता। किन्तु सब व्यर्थ चला जाता। शिक्षक तब राजा से मिले बिना चुपचाप नौकरी छोड़ कर चला जाता।

‘‘प्रभु, लगता है राजकुमार किसी दुष्ट शक्ति के प्रभाव में है’’, मंत्री ने कहा।

‘‘तो? इस प्रभाव को कैसे नष्ट करें?’’ राजा ने पूछा।

‘‘हमलोग नहीं कर सकते, प्रभु, किन्तु पहाड़ी के नीचे नदी तट पर एक ऋषि रहते हैं, जो सम्भवतः कुछ कर सकते हैं। वे लोगों से मिलना पसन्द नहीं करते। फिर भी, वे आप को मना नहीं करेंगे; वे आप को सलाह देंगे कि राजकुमार को दुष्ट शक्ति के प्रभाव से कैसे मुक्त किया जाये।’’ मंत्री ने कहा।

राजा ने बुद्धिमान मंत्री की सलाह मान ली। वह घोड़े पर सवार हो ऋषि की कुटिया में अकेले गया। उसने झुक कर ऋषि का अभिवादन किया और नम्रतापूर्वक अपना परिचय दिया।

‘‘एक राजा मेरे जैसे दरिद्र के लिए बहुत कुछ कर सकता है। मैं राजा के लिए क्या कर सकता हूँ?’’ ऋषि ने पूछा।

‘‘ऋषिवर, मैं अभी सबसे अधिक दरिद्र और अभागा व्यक्ति हूँ,’’ राजा ने कहा और ऋषि को अपनी समस्या बताई। ऋषि ने अपनी दाढ़ी पर कई बार हाथ फेरा और आँखें बन्द कर लीं। कुछ देर के बाद उसने गंभीर होकर कहा, ‘‘मैं तुम्हें अपने बेटे को शिक्षित करने में मदद कर सकता हूँ, यदि तुम बाघ की पूर्ण जाग्रत अवस्था में उसकी थोड़ी सी मूँछ स्वयं काट कर ला दो।’’

राजा निराश हो गया। ‘‘बाघ की थोड़ी सी मूँछ, हे भले ज्ञानी? लेकिन यह तो असम्भव है!’’

‘‘मनुष्य की प्रकृति को बदलने से अधिक असम्भव नहीं।’’ ऋषि ने कहा, ‘‘जाओ बच्चे, प्रयास करो। हिम्मत न हारो!’’

ऋषि खड़ा हुआ और सैर करने के लिए बाहर निकल पड़ा। राजा विचार मग्न और चिन्तित अवस्था में महल में लौट आया।

राजा का अपना एक चिड़ियाघर था और उसमें एक पिंजड़े में बन्द एक बाघ था। उसने चिड़ियाघर के रखवाले को बुलाया और पूछा कि क्या बाघ को स्पर्श करना सम्भव है।

‘‘हमलोगों का बाघ बहुत घमण्डी है, प्रभु। मैं किसी प्रकार उसका खाना उसके पिंजड़े में खिसका देता हूँ, लेकिन निकट जाने का प्रयास नहीं करता।’’ रखवाले ने कहा।

लेकिन ऋषि के आदेश में कुछ शक्ति थी। राजा ने साहसिक कदम उठाया। शाम को राजा बाघ के लिए कुछ भोजन ले गया और उसे पिंजड़े में खिसका कर देखता रहा। बाघ ने गुर्रा कर खाना खा लिया और राजा को यों देखा मानों उसका यह कार्य उसे पसन्द आया। राजा ने एक पखवारे तक इसे जारी रखा। फिर, थाली को उसने अपने हाथ में पकड़े रखा और बाघ की प्रतीक्षा की। बाघ ने उसे पहले सन्देह के साथ देखा, पर बाद में पिंजड़े के छोटे से द्वार पर आकर राजा के हाथ की थाली से खाना खा लिया।

राजा कुछ दिनों तक ऐसा करता रहा। एक दिन बाघ खाने के बाद राजा का हाथ चाटने लगा। राजा ने समझा कि बाघ उसे प्यार कर रहा है। राजा ने बाघ को हर रोज अपना हाथ चाटने दिया। कुछ दिनों के बाद उसने बाघ के सिर पर हाथ फेरा। बाघ को यह प्यार अच्छा लगा ।

यह सिलसिला एक महीने तक चलता रहा। बाघ को पुचकारते समय राजा प्यार भरे अनेक शब्दों का प्रयोग करता था जो बाघ को अच्छे लगते थे। एक दिन बाघ से धीरे-धीरे बात करते समय उसने एक छोटी कैंची से उसकी थोड़ी-सी मूँछें काट लीं। बाघ को यह हरकत बिलकुल बुरी नहीं लगी!

राजा खुशी से नाचने लगा। वह तेजी से ऋषि के पास पहुँचा और बाघ की मूँछ उसे सुपुर्द कर दी। ऋषि ने सिर हिलाया, लेकिन यह देख कर राजा को आश्चर्य हुआ कि ऋषि ने उन मूँछों को चूल्हे में झोंक दिया।

‘‘मेरे प्यारे राजा, अब तुम जान गये हो कि कैसे अपने बेटे को अनुशासित करना चाहिये, क्या ऐसा नहीं है? कोई भी मनुष्य का बच्चा बाघ से अधिक प्रचण्ड और खतरनाक नहीं हो सकता! अब, अपने बेटे को किसी शिक्षक को सुपुर्द करने से पूर्व स्वयं उसे वश में करो, उससे बातें करो, उसे कहानियॉं सुनाओ, उससे मित्रता करो जैसे तुमने बाघ को मित्र बना लिया और तब, उसे शिक्षक की सहायता लेने के लिए राजी करो। ठीक है न? जाओ और इसे आत्मविश्वास तथा दृढ़ निश्चय के साथ करो। उसी भावना से जिसके साथ तुमने बाघ की मूँछ लाने के कार्य को स्वीकार किया था। तुम सफल रहोगे,’’ ऋषि बोले और हर रोज़ की तरह सैर के लिए बाहर निकल पड़े।

राजा महल में वापस लौट आया और अपने नव अर्जित ज्ञान को व्यवहार में लाने लगा। संक्षेप में, वह राजकुमार को अनुशासित करने में सफल हो गया। राजकुमार ने अपने पिता में एक स्नेहिल शुभचिन्तक देखा जो उसके मन की भावना को समझता था।

राजा ने राजकुमार में एक समझदार और ओजस्वी युवक देखा जो अपना सबक सीखने के लिए तैयार था।

‘‘तो आखिर, पहले मुझे अपना सबक सीखना पड़ा, तभी मैं बच्चे को सबक सिखा सका’’, प्रसन्नचित्त राजा ने मंत्री को बताया जो उतना ही प्रसन्न था।