30 मार्च 2010

घमण्ड का नतीजा



काशी के राजा ब्रह्मदत्त के शासन काल में बोधिसत्व ने गुत्तिल नामक वैणिक के रूप में जन्म लिया। सोलह साल की उम्र में गुत्तिल ने ऐसी ख्याति प्राप्त की कि सारे जंबू द्वीप में वीणा-वादन में उनकी तुलना कर सकनेवाला कोई नहीं था । इसीलिए काशी के राजा ने उनको अपना दरबारी वैणिक नियुक्त किया।

इसके कई साल बाद काशी से कुछ व्यापारी व्यापार करने के लिए उज्जयिनी नगर में पहुँचे। गुत्तिल के वीणा-वादन ने काशी राज्य के सभी लोगों में वीणा के प्रति रुचि पैदा कर दी थी । इसीलिए काशी के व्यापारियों का मन वीणा-वादन की ओर झुक गया था। उन लोगों ने उज्जयिनी के व्यापारियों से कहा, ‘‘हमलोग वीणा का वादन सुनना चाहते हैं। नगर के श्रेष्ठ कलाकारों को बुला कर वीणा-वादन का आयोजन कीजिए। जो भी खर्च होगा, हम लोग देंगे।''

उज्जयिनी के कलाकारों में मूसिल सबसे मशहूर वैणिक थे। इसीलिए काशी के व्यापारियों का मनोरंजन करने के लिए उनकी वाद्यगोष्ठी का इंतजाम किया गया। मूसिल अपनी वीणा लेकर व्यापारियों के डेरे पर आ पहुँचे। वीणा की तंत्रियों में श्रुति बिठा कर झंकृत करने लगे। देर तक मूसिल वीणा बजाते रहे, लेकिन काशी के व्यापारियों के चेहरों पर पल भर के लिए भी आनन्द के भाव दिखाई नहीं पड़े। इस पर मूसिल ने मध्यम श्रुति करके कुछ गीतों का आलाप किया। इस पर भी व्यापारियों में उत्साह पैदा नहीं हुआ। उनके हृदय में संगीत के आनन्द की अनुभूति नहीं हुई। उनका मन पुलकित नहीं हुआ।

आख़िर मूसिल ने हताश होकर पूछा, ‘‘महाशयो, मैं बड़ी देर से वीणा बजा रहा हूँ, फिर भी आप लोगों के चेहरों पर खुशी की रेखाएँ नहीं हैं । क्या मेरा वीणा-वादन पसन्द नहीं आया?''

काशी के व्यापारी अचरज से एक-दूसरे को ताकने लगे। उनमें से एक ने कहा, ‘‘ओह, आप अभी तक वीणा बजाते रहे? हम सोच रहे थे कि आप वीणा की तंत्रियों को ठीक कर रहे हैं।''

दूसरे ने कहा, ‘‘हम सोच रहे थे कि शायद वीणा बिगड़ गई है, तंत्रियाँ ठीक से झंकृत न होकर आप को परेशान कर रही हैं? माफ़ कीजियेगा।''

ये बातें सुनने पर मूसिल का चेहरा उतर गया, खिन्न होकर बोले, ‘‘आप लोगों ने मुझ से भी बड़े कलाकार का वीणा-वादन सुना होगा। इसीलिए मेरा वादन आप लोगों को पसंद नहीं आया । कृपया उस कलाकार का नाम बताइये।''

‘‘क्या आप ने हमारे काशी राज्य के दरबारी वैणिक गुत्तिल के वीणा-वादन के बारे में नहीं सुना?'' व्यापारियों ने पूछा।

‘‘क्या वे बहुत बड़े विद्वान हैं?'' मूसिल ने पूछा।

‘‘उनकी कला के सामने आप किस खेत की मूली हैं?'' व्यापारियों ने कहा।

‘‘तो मैं तब तक आराम नहीं लूँगा जब तक मैं उनके बराबर का कलाकार न कहलाऊँ? आप लोगों को मेरे वादन के लिए मूल्य चुकाने की ज़रूरत नहीं है।'' यह उत्तर देकर मूसिल वहाँ से चले गये। उसी दिन मूसिल घर से रवाना होकर काशी नगर गये और बोधिसत्व से मिले।

बोधिसत्व ने मूसिल से पूछा, ‘‘बेटा, तुम कौन हो? किसलिए आये हो?''

‘‘महानुभाव, मैं उज्जयिनी नगर का निवासी हूँ। मेरा नाम मूसिल है। आप से वीणा-वादन सीखने आया हूँ। आपका अनुग्रह हुआ, तो आप के बराबर का कलाकार बनना चाहता हूँ।'' मूसिल ने जवाब दिया।

बोधिसत्व ने मूसिल को वीणा-वादन सिखाने को मान लिया।

मूसिल प्रतिदिन घर पर वीणा-वादन का अभ्यास करते और बोधिसत्व के साथ राज दरबार में हो आया करते थे।

कई साल बीत गये। एक दिन बोधिसत्व ने मूसिल से कहा, ‘‘बेटा, तुम्हारी विद्या पूरी हो गई है। तुम्हें मैंने अपनी सारी विद्या सिखा दी है। अब तुम अपने देश को लौट सकते हो।''

मगर मूसिल के मन में उज्जयिनी लौटने का विचार न था, क्योंकि वे समझते थे कि वहाँ पर उनकी विद्या का कोई आदर नहीं होगा। उनमें संगीत को समझने की न तो बुद्धि है और न उसके भाव को ग्रहण करने योग्य हृदय की संवेदनशीलता। इसीलिए वीणा वादन में जब वे कच्चे थे तभी उज्जयिनी के निवासियों ने उनको महान कलाकार मान लिया था। किसी भी उपाय से सही, काशी राज्य के दरबारी कलाकार बनने पर ही उनकी ज़्यादा प्रतिष्ठा होगी। इस व़क्त उन्हें बोधिसत्व के बराबर की विद्वत्ता प्राप्त है। अलावा इसके बोधिसत्व वृद्ध हो चुके हैं ! इसीलिए काशी राज्य के दरबार में स्थान पाने की कोशिश करनी चाहिए। यों विचार कर मूसिल ने बोधिसत्व से कहा, ‘‘मैं उज्जयिनी लौटना नहीं चाहता। आप मानते हैं कि मुझे भी आप के बराबर पांडित्य प्राप्त है। इसीलिए यदि आप मेरे लिए भी राजदरबार में स्थान दिला दें तो आप की बड़ी कृपा होगी।''

दूसरे दिन बोधिसत्व ने राजा से यह बात कही। राजा ने सोच-समझकर बताया, ‘‘मूसिल आप के यहाँ बहुत समय से शिष्य बनकर रहा, इसीलिए उसे दरबारी विद्वान बना लेंगे; लेकिन आप के वेतन का आधा ही वेतन उसे दिया जाएगा। यदि वह मेरे इस निर्णय से सहमत है तो इस पद को वह स्वीकार कर सकता है।''

बोधिसत्व ने यह बात मूसिल को बताई।

बोधिसत्व के मुँह से ये बातें सुनने पर मूसिल मन ही मन ईर्ष्या से भर उठा।

वह सोचने लगा, ‘‘मैं बोधिसत्व से किस बात में कम हूँ? उनके वेतन के बराबर मुझे भी क्यों नहीं देते?''

मूसिल राजा के पास पहुँचा और बोला, ‘‘महाराज, सुना है कि आप मुझे आधे वेतन पर दरबारी विद्वान नियुक्त कर रहे हैं। मैं अपने गुरुजी के बराबर का पांडित्य रखता हूँ। उनके बराबर वेतन मुझे भी मिलना चाहिए।''


राजा क्रोध में आ गये और बोले, ‘‘मैं तुम को गुत्तिल के शिष्य के रूप में जानता हूँ; लेकिन उनके बराबर के वैणिक के रूप में नहीं; तुम्हें गुत्तिल ने शिष्य के रूप में स्वीकार किया और तुम्हारी नौकरी के लिए पैरवी की, इसीलिए तुम्हें दरबारी वैणिक बनने का मौका दिया जा रहा है। गुत्तिल सिर्फ हमारे राज्य के ही नहीं, बल्कि देश भर में सर्वश्रेष्ठ वीणा वादक हैं। तुम अभी उनका मुकाबला नहीं कर सकते। तुम जो उनकी बराबरी का दावा कर रहे हो, उसे प्रत्यक्ष देखने पर ही मान सकता हूँ।''

‘‘आप चाहें तो मेरी परीक्षा ले लीजिए।'' मूसिल ने कहा।

‘‘अच्छी बात है। मौक़ा देख मैं तुम दोनों के बीच प्रतियोगिता का प्रबंध करूँगा। यदि तुम्हारा वादन तुम्हारे गुरुजी के वादन के बराबर साबित हुआ तो मैं तुम्हें भी उनके बराबर का वेतन दूँगा। वरना तुम्हें दरबार में प्रवेश करने न दूँगा। तुम्हें मेरी ये शर्ते मंजूर हैं?'' राजा ने पूछा। मूसिल ने उन शर्तों को मान लिया।

इसके बाद गुरु और शिष्य के बीच प्रतियोगिता का प्रबंध हुआ। वे दोनों अपनी-अपनी कला प्रदर्शित करने लगे। इस बीच बोधिसत्व की वीणा का एक तार टूट गया, मगर वे शेष तारों पर वीणा बजाते रहे। इसे देख मूसिल ने भी अपनी वीणा का एक तार जान-बूझकर तोड़ डाला।

थोड़ी देर बाद बोधिसत्व की वीणा की एक और तंत्रि टूट गई। मूसिल ने भी एक और तार तोड़ डाला। चंद मिनटों में बोधिसत्व की वीणा की सारी तंत्रियाँ टूट गईं। मूसिल ने अपनी वीणा के सारे तार तोड़ डाले। मगर बोधिसत्व टूटी तंत्रियों पर ही स्वरों का आलाप करने लगे। पर मूसिल ऐसा कर न पाया। दरबारियों ने बोधिसत्व की प्रतिभा देख तालियाँ बजाईं और मूसिल का मजाक़ उड़ाया।

मूसिल यह अपमान सह नहीं पाया। वह उसी व़क्त दरबार से बाहर चला गयाऔर उसी दिन उज्जयिनी के लिए रवाना हो गया।