29 मार्च 2010

रामायण – सुन्दरकाण्ड - जानकी राक्षसी घेरे में

रावण के चले जाने के पश्चात् राक्षसनियों ने सीता को चारों ओर से घेर लिया और वे उन्हें अनेक प्रकार से डराने धमकाने लगीं। एक ने उसकी भर्त्सना करते हुये कहा, "हे मूर्ख अभागिन! तीनों लोकों और चौदह भुवनों को अपने पराक्रम से पराजित करने वाले परम तेजस्वी राक्षसराज की शैया प्रत्येक को नहीं मिलती। बड़ी-बड़ी देवकन्याएँ इसके लिये तरसती हैं। यह तो तुम्हारा परम सौभाग्य है कि स्वयं लंकापति तुम्हें अपनी अंकशायिनी बनाना चाहते हैं। तनिक विचार कर देखो, कहाँ अगाध ऐश्वर्य, स्वर्णपुरी तथा अतुल सम्पत्ति का एकछत्र स्वामी और कहाँ वह राज्य से निकाला हुआ, कंगालों की भाँति वन-वन में भटकने वाला, हतभाग्य साधारण सा मनुष्य! क्या तुम इन दोनों के बीच का महान अन्तर नहीं देखती। सोच-समझ कर निर्णय करो और महाप्रतापी लंकाधिपति रावण को पति के रूप में स्वीकार करो। उसकी अर्द्धांगिनी बनने में ही तुम्हारा कल्याण है। अन्यथा राम के वियोग में तड़प-तड़प कर मरोगी या राक्षसराज के हाथों मारी जाओगी। तुम्हारा यह कोमल शरीर इस प्रकार नष्ट होने के लिये नहीं है। महाराज रावण के साथ विलास भवन में जा कर अठखेलियाँ करो। मद्यपान कर के रमण करो। महाराज तुम्हें इतना विलासमय सुख देंगे जिसकी तुमने उस कंगाल वनवासी के साथ रहते कल्पना भी नहीं की होगी। यदि तुम हमारी बात नहीं मानोगी तो कुत्ते के मौत मारी जाओगी।"

इन कठोर वचनों से दुःखी हो कर सीता नेत्रों में आँसू भर कर बोली, "हे राक्षसनियों! तुम क्यों ऐसे दुर्वचन कह कर मुझ वियोगिनी की पीड़ा को और बढ़ाती हो? तुम नारी हो कर भी यह नहीं समझती कि तुम्हारी बात मानने से इस लोक में निन्दा और परलोक में नृशंस यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं। माना कि तुम्हारी और मेरी संस्कृति तथा संस्कार भिन्न हैं, फिर भी नारी की मूल भावनाएँ तो एक जैसी होती हैं। हृदय एक बार जिसका हो जाता है, वह वस्त्रों की भाँति प्रिय पात्र का बार-बार परिवर्तन नहीं करता। फिर मेरी संस्कृति में तो पति ही पत्नी का सर्वस्व होता है। मैंने धर्मात्मा दशरथनन्दन श्री राम को पति के रूप में वरण किया है, मैं उनका परित्याग कैसे कर सकती हूँ? मेरे लिये मेरा कंगाल पति ही मेरा परमेश्वर है। उन्हें छोड़ कर मैं किसी अन्य की नहीं हो सकती, चाहे वह लंका का राजा हो, तीनों लोकों का स्वामी हो या अखिल ब्रह्माण्ड का एकछत्र सम्राट हो। याद रखो, मैं किसी भी दशा में उन्हें छोड़ कर किसी अन्य का चिन्तन नहीं कर सकती।"

सीता के इन वचनों से चिढ़ कर वे राक्षसनियाँ सीता को दुर्वचन कहती हुई अने प्रकार से कष्ट देने लगीं। विदेह नन्दिनी की यह दुर्दशा पवनपुत्र वृक्ष पर बैठे हुये बड़े दुःख के साथ देख रहे थे। और सोच रहे थे कि किस प्रकार जानकी जी से मिल कर उन्हें धैर्य बँधाऊँ। साथ ही वे परमात्मा से प्रार्थना भी करते जाते थे, "हे प्रभो! सीता जी की इन दुष्टों से रक्षा करो।" उधर सीता जब उन दुर्वचनों को न सह सकी तो वह वहाँ से उठ कर इधर उधर भ्रमण करने लगी और भ्रमण करती हुई उसी वृक्ष के नीचे आ कर खड़ी हो गई जिस पर हनुमान बैठे थे। उस वृक्ष की एक शाखा को पकड़ कर उसके सहारे खड़ी हो अश्रुविमोचन करने लगी। फिर सहसा वे उच्च स्वर में मृत्यु का आह्वान करती हुई कहने लगी, "हे भगवान! अब यह विपत्ति नहीं सही जाती। प्रभो! मुझे इस विपत्ति से छुटकारा दिलाओ, या मुझे इस पृथ्वी से उठा लो। बड़े लोगों ने सच कहा है कि समय से पहले मृत्यु भी नहीं आती। आज मेरी कैसी दयनीय दशा हो गई है। कहाँ अयोध्या का वह राजप्रासाद जहाँ मैं अपने परिजनों तथा पति के साथ अलौकिक सुख भोगती थे और कहाँ यह दुर्दिन जब मैं पति से विमुक्त छल द्वारा हरी गई इन राक्षसों के फंदों में फँस कर निरीह हिरणी की भाँति दुःखी हो रही हूँ। आज अपने प्राणेश्वर के बिना मैं जल से निकाली गई मछली की भाँति तड़प रही हूँ। इतनी भायंकर वेदना सह कर भी मेरे प्राण नहीं निकल रहे हैं। आश्चर्य यह है कि मर्मान्तक पीड़ा सह कर भी मेरा हृदय टुकड़े-टुकड़े नहीं हो गया। मुझ जैसी अभागिनी कौन होगी जो अपने प्राणाधिक प्रियतम से बिछुड़ कर भी अपने प्राणों को सँजोये बैठी है। अभी न जाने कौन-कौन से दुःख मेरे भाग्य में लिखे हैं। न जाने वह दुष्ट रावण मेरी कैसी दुर्गति करेगा। चाहे कुछ भी हो, मैं उस महापातकी को अपने बायें पैर से भी स्पर्श न करूँगी, उसके इंगित पर आत्म समर्पण करना तो दूर की बात है। यह मेरा दुर्भाग्य ही है किस एक परमप्रतापी वीर की भार्या हो कर भी दुष्ट रावण के हाथों सताई जा रही हूँ और वे मेरी रक्षा करने के लिये अभी तक यहाँ नहीं पहुँचे। मेरा तो भाग्य ही उल्टा चल रहा है। यदि परोपकारी जटायुराज इस नीच के हाथों न मारे जाते तो वे अवश्य राघव को मेरा पता बता देते और वे आ कर रावण का विनाश करके मुझे इस भयानक यातना से मुक्ति दिलाते। परन्तु मेरा मन कह रहा है दि दुश्चरित्र रावण के पापों का घड़ा भरने वाला है। अब उसका अन्त अधिक दूर नहीं है। वह अवश्य ही मेरे पति के हाथों मारा जायेगा। उनके तीक्ष्ण बाण लंका को लम्पट राक्षसों के आधिपत्य से मुक्त करके अवश्य मेरा उद्धार करेंगे। किन्तु उनकी प्रतीक्षा करते-करते मुझे इतने दिन हो गये और वे अभी तक नहीं आये। कहीं ऐसा तो नहीं है कि उन्होंने मुझे मरा हुआ समझ लिया हो और इसलिये अब वे मेरी खोज खबर ही न ले रहे हों। यह भी तो हो सकता है कि दुष्ट मायावी रावण ने जिस प्रकार छल से मेरा हरण किया, उसी प्रकार उसने छल से उन दोनों भाइयों का वध कर डाला हो। उस दुष्ट के लिये कोई भी नीच कार्य अकरणीय नहीं है। दोनों दशाओं में मेरे जीवित रहने का प्रयोजन नहीं है। यदि उन्होंने मुझे मरा हुआ समझ लिया है या इस दुष्ट ने उन दोनों का वध कर दिया है तो भी मेरा और उनका मिलन जअब असम्भव हो गया है। जब मैं अपने प्राणेश्वर से नहीं मिल सकती तो मेरा जीवित रहना व्यर्थ है। मैं अभी इसी समय अपने प्राणों का उत्सर्ग करूँगी।"

सीता के इन निराशा भरे वचनों को सुन कर पवनपुत्र हनुमान अपने मन में विचार करने लगे कि अब इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि यह ही जनकनन्दिनी जानकी हैं जो अपने पति के वियोग में व्यकुल हो रही हैं। यही वह समय है, जब इन्हें धैर्य की सबसे अधिक आवश्यकता है।