30 मार्च 2010

वाराणसी पर गीदड़ की चढ़ाई



एक बार बोधिसत्व ने काशी के एक विद्वान ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया। बोधिसत्व में बचपन से ही ज्ञान के लिए अद्भुत लगन थी। अतः कम उम्र में ही इन्होंने समस्त शास्त्रों का अध्ययन समाप्त कर लिया। नगर के बड़े-बड़े पंडित इनके ज्ञान का लोहा मानने लगे। इनकी असाधारण योग्यता से प्रभावित होकर काशी-नरेश ने इन्हें प्रधान पुरोहित बना दिया।

बोधिसत्व ने शास्त्रों का अध्ययन कर एक ऐसे मंत्र का पता लगाया जिसे कोई भी सुनता तो वह मंत्र कहनेवाले के प्रभाव या अधिकार में आ जाता और बिना विरोध किये उसकी आज्ञा का पालन करता। बोधिसत्व इस मंत्र का किसी पर प्रयोग करना तो नहीं चाहते थे पर इतना जरूर चाहते थे कि इस मंत्र का अभ्यास बना रहे ताकि जरूरत पर जन-कल्याण के लिए इसका उपयोग हो सके ।

इस विचार से, एकान्त में इस मंत्र का अभ्यास करने के लिए एक दिन बोधिसत्व निकट के जंगल में गये। वहाँ वे एक ऊँची चट्टान पर बैठ गये। उन्होंने इधर-उधर ध्यान से देखा, कोई नहीं था। उन्होंने ज़ोर-ज़ोर से बोलकर मंत्र का कई बार अभ्यास किया। सूर्यास्त होने पर वे वापस आने के लिए उठ खड़े हुए।

तभी चट्टान के पीछे से एक गीदड़ आकर बोला, ‘‘पंडित जी महाराज! मैंने आपका मंत्र कण्ठस्थ कर लिया है। आपको शत-शत प्रणाम!'' इतना कहकर वह भाग गया। बोधिसत्व ने सोचा कि गीदड़ जैसे अयोग्य के लिए यह मंत्र सीखना शुभ नहीं है, इसलिए उन्होंने उसका पीछा किया। गीदड़ पास की झाड़ियों में छिप गया।

अन्धेरा बढ़ गया था, इसलिए बोधिसत्व उसे पकड़ न सके। गीदड़ पिछले जन्म में ब्राह्मण था। चालाकी और मक्कारी के कारण उसे गीदड़ का नीच जन्म मिला था।


मनुष्य जन्म की स्मरण शक्ति बनी थी, इसी कारण वह मंत्र तुरन्त सीख गया। गीदड़ को रास्ते में एक दूसरा मोटा तगड़ा गीदड़ मिला। इसने तुरंत मंत्र का उच्चारण किया। तगड़े गीदड़ ने उसे झुककर प्रणाम किया और रास्ता दे दिया। गीदड़ बड़ा प्रसन्न हुआ। इसने कुछ ही दिनों में सैकड़ों गीदड़ों और सियारों पर प्रभाव जमा लिया।

इसके बाद जंगली सूअरों, बाघों, शेरों और हाथियों को भी प्रभावित किया और एक दिन समारोह के साथ वह जंगल का राजा घोषित कर दिया गया। अब क्या था। गीदड़ चैन से जंगल पर राज्य करने लगा। वह मन ही मन अपने भाग्य पर इठलाता। सोचता, एक मंत्र की बदौलत वह आज कहाँ से पहुँच गया है।

एक मामूली गीदड़ से जंगल के राजा का भी राजा हो गया है। शेर तक उसकी गुलामी करते हैं। हाथी, गैंडे सभी देखते ही सलाम करते हैं। वह मंत्र से अधिक अपनी बुद्धि और चतुराई की तारीफ़ करता। यदि अपनी चतुराई से मंत्र नहीं सीखता तो मंत्र का क्या कोई लाभ होता! देखते-देखते उसके दिन बदल गये।

पहले जहाँ उसे बड़े जानवरों के जूठन पर गुजारा करना पड़ता, वहाँ अब रोज़ नये-नये ताज़े चढ़ावे आने लगे। शाकाहारी पशु भेंट में तरह-तरह के फल लाते, मांसाहारी पशु ताज़ा मांस। राजा के सन्तुष्ट होने पर ही शेर-चीते अपना भोजन शुरू करते। शरीर और अहंकार दोनों बैलून की तरह फूलने लगे। इसका शरीर इतना मोटा हो गया कि भेड़िया और इसमें भेद करना मुश्किल हो गया।


वह शान से जंगल का दौरा करने लगा और बड़े-बड़े जानवरों को डाँटने-फटकारने और हुक्म सुनाने लगा। जंगल के कुछ जानवर तो यह समझते कि यह साधारण गीदड़ नहीं है, बल्कि किसी दैवी शक्ति का अवतार है।

लेकिन कुछ जानवर पीछे में इसकी शिकायत भी करते। फिर भी, मंत्र का कुछ ऐसा असर था कि गीदड़ राजा के सामने आते ही उनकी बोलती बन्द हो जाती। सबको आश्चर्य होता कि आखिर यह गीदड़ से जंगल का राजा कैसे बन बैठा।

मंत्र का राज़ किसी को मालूम न था। कुछ स्वार्थी गीदड़ों ने अपने लाभ के लिए राजा को सलाह दी, ‘‘रानी के बिना राज्य सूना-सा लगता है महाराज! और जब तक राज्य की व्यवस्था देखने के लिए मंत्री और सेनापति नहीं रहेंगे, तब तक दुश्मनों का खतरा बराबर बना रहेगा।'' यह बात राजा को भा गयी।

गीदड़-राजा ने एक मादा गीदड़ से विवाह कर उसे रानी घोषित किया। कुछ बाघों और शेरों को चुनकर उन्हें मंत्री और सेनापति बनाया। उसे यह जानकर बहुत गर्व होता कि सभी जानवर बिना चूं-चपड़ उसकी आज्ञा का पालन करते हैं।

दो हाथियों को पास-पास खड़ा किया जाता। उन दोनों की पीठ पर एक शेर खड़ा होता। शेर की पीठ पर गीदड़-राजा विराजमान होता। खुशामदी पशु कहते, ‘‘इतना बड़ा राजा आज तक नहीं हुआ।'' उसका गर्व बढ़ता गया।

एक दिन उसके मन में विचार आया, ‘क्या हम सिर्फ़ जानवरों का राजा बनकर संतोष कर लें? क्यों न वाराणसी को जीतें?' उसने शेरों और अन्य मजबूत जानवरों की सेना बनायी और वाराणसी पर चढ़ाई कर दी।



इस डरावनी सेना को जिन्होंने देखा, उन सबने नगर भर में यह खबर फैला दी। नगरवासी डर से थर-थर काँपने लगे। गीदड़-राजा नगर-द्वार पर रुका और भय-कंपित द्वार-रक्षकों से बोला, ‘‘अपने राजा से कहो कि आत्म-समर्पण कर दे, नहीं तो मेरी सेना नगर पर धावा बोल देगी।''

यह समाचार पाकर राजा घबरा गये। बोधिसत्व ने उन्हें धीरज बंधाते हुए कहा, ‘‘इससे निबटने की जिम्मेवारी मुझ पर छोड़ दीजिए।'' तब बोधिसत्व ने नगर की दीवार पर खड़े होकर गीदड़-राजा से पूछा, ‘‘तुम नगर को कैसे जीतना चाहते हो?'' गीदड़-राजा अट्टहास करके बोला, ‘‘यह तो बहुत आसान है। यदि हमारे शेर गरजना शुरू करें तो सारे नगरवासी जान लेकर भाग जायेंगे।''

बोधिसत्व को गीदड़ की बात सही लगी। उन्होंने दीवार के नीचे खड़े अधिकारियों से कहा, ‘‘जाकर नगरवासियों से कह दो कि वे अपने-अपने कान रूई से बन्द कर लें।'' जैसे ही यह काम पूरा हुआ, बोधिसत्व ने गीदड़ से कहा, ‘‘अब तुम जैसे भी नगर पर अधिकार करना चाहते हो, करो।''

दो हाथियों पर खड़े सिंह पर विराजमान गीदड़-राजा ने सभी सिहों को एक साथ गरजने का आदेश दिया। घोर गर्जन से आकाश फटने लगा लेकिन नगरवासियों को कुछ भी सुनाई नहीं दिया। हाँ, इससे हाथी अवश्य भड़क उठे और उन पर खड़ा सिंह ‘धम्म' से नीचे गिरा।

गीदड़-राजा हाथियों की भाग-दौड़ में उनके पाँव के नीचे आकर वैकुण्ठ सिधार गये। जानवरों में भागदड़ मच गई। इसमें कुछ कुचल कर मर गये, जो बचे जंगल में भाग गये। ढिंढोरे पर घोषणा सुनकर नगरवासियों ने अपने-अपने कानों से रूई निकाल ली।

जब उन्हें मालूम हुआ कि इतनी बड़ी बला बड़ी आसानी से टल गई है तो सारे नगरवासियों ने खूब आनन्द मनाया। राजा और प्रजा सबने बोधिसत्व के प्रति कृतज्ञता प्रकट की।