30 मार्च 2010

जीने की राह


सत्यवान लक्ष्मी का इकलौता बेटा था। लक्ष्मी ने बड़े ही प्यार से उसे पाला-पोसा। सत्यवान जब पाँच साल का था, तब उसका पिता अकस्मात् मर गया। तब से लक्ष्मी इतोधिक प्यार से उसकी परवरिश करने लगी।

ऐसे तो सत्यवान स्वभाव से अच्छा था, पर बुरे दोस्तों की वजह से ख़राब होता गया। व्यर्थ ही खर्च करने लगा। देखते-देखते जायदाद, धरती जाने लगी। मॉं उसे बहुत समझाती थी, पर वह सुनता ही नहीं था। जब वह बीस साल का हो गया तब मॉं को यह चिंता सताने लगी कि भविष्य में उसका क्या होगा। इसी चिंता के कारण लक्ष्मी मर गयी।

माँ के मर जाने के कुछ ही समय बाद सत्यवान बेघर हो गया। अब उसके पास कुछ नहीं रहा। आगे कैसे जीऊँ, उसकी समझ में नहीं आया। वह अपने गॉंव में रह नहीं सका और दूसरे गॉंव में रहने लगा। परंतु वहाँ भी कोई उसकी सहायता करने आगे नहीं आया। निराशा उसमें घर कर गयी। उसने वह गॉंव भी छोड़ दिया। उसे लगने लगा कि मरने के अलावा कोई और चारा नहीं है।

यही सोचता जब वह रास्ते से गुज़रने लगा तब उसने देखा कि एक बूढ़ी औरत एक इमली के पेड़ के नीचे बैठी छुट्टे पैसे गिन रही है। जब उसने सत्यवान को देखा, तो उसे पेड़ की छाया में आने को बुलायाऔर उससे कहा, ‘‘क्या बात है बेटे, इस कड़ी धूप में कहॉं जा रहे हो?’’ फिर उसने उसके फीके चेहरे को ध्यान से देखकर कहा, ‘‘लो, ये दो शरीफ़े। खाकर अपनी भूख मिटा लो।’’

सत्यवान ने संकोच-भरे स्वर में कहा, ‘‘मेरे पास पैसे नहीं हैं।’’

‘‘पैसों की बात छोड़ो। तुम तो मेरे पोते के समान हो। इन्हें खा लो ।’’ बूढ़ी ने बड़े ही प्यार भरे स्वर में कहा।

सत्यवान ने दोनों फल खा लिये और बूढ़ी का दिया पानी पी लिया। बूढ़ी थोड़ी देर तक अपने आप बड़बड़ाती रही और फिर कहने लगी, ‘‘देखो बेटे, मेरी उम्र अस्सी है। मेरी ही आँखों के सामने बेटे, पोते सब भगवान के प्यारे हो गये। जब तक वहाँ से बुलावा नहीं आता, तब तक मुझे भी जीना पड़ेगा ना? इसीलिए इन फलों को बेचकर जी रही हूँ। इसी को मैंने जीने की राह बना ली है ।’’ कहती हुई टोकरी सिर पर रख चलती बनी।

सत्यवान को बूढ़ी के जीने की आशा पर आश्चर्य हुआ। वह वहाँ से निकलकर जंगल से होता हुआ आगे बढ़ने लगा। अचानक एक पेड़ की टहनियॉं टूटकर ज़मीन पर गिरने लगीं। उसने सिर उठाकर ऊपर देखा। देखा कि बारह साल की उम्र का एक लड़का टहनियों को काट रहा है।

सत्यवान को उसपर दया आयी। उसने लड़के से कहा, ‘‘तुम तो बहुत छोटे हो। इस छोटी उम्र में इतना भारी काम क्यों करने लग गये? घर छोड़कर यहाँ आने की क्या ज़रूरत है?’’ टहनियों से झाँक कर सत्यवान को देखते हुए लड़के ने कहा, ‘‘महाशय, घर पर ही बैठा रहूँ तो खाना कौन खिलायेगा? इन लकडियों को बेच कर ही खा पाता हूँ। मेरे माँ-बाप नहीं रहे। मेहनत करूँगा, तभी पेट भर पाऊँगा।’’

लड़के की बातों ने सत्यवान के मन को झकझोर दिया। उसे तब उस बूढ़ी की भी याद आयी, जो बुढ़ापे में भी पेट भरने के लिए मेहनत कर रही है। और यह अनाथ बालक छोटी उम्र में मेहनत करके अपना पेट भर रहा है। अब उसे ज्ञात हो गया कि इस दीन स्थिति का कारण वह स्वयं है। वह तुरंत अपना गाँव पहुँचाऔर सीधे मुखिया परांकुश के घर गया।


बरामदे में बैठे परांकुश ने सत्यवान को देखते ही पूछा, ‘‘क्या बात है, सत्यवान? इतने दिनों तक कहाँ थे? मुझसे कोई काम है क्या?’’

प्रणाम करते हुए सत्यवान ने कहा, ‘‘साहब, आप मेरे पिता को जानते हैं। उन्होंने जो जायदाद दी, उसे मैंने बुरे व्यसनों का शिकार होकर फूँक डाला। पेट भरने के लिए अब मुझे कोई नौकरी दिलायेंगे तो ज़िन्दगी भर आपका आभारी रहूँगा। मज़दूरी भी करने को तैयार हूँ।’’

मुस्कुराते हुए परांकुश ने कहा, ‘‘जब चाहो, मज़दूरी नहीं मिलती। तुममें ऐसा परिवर्तन आये, यही चाहती थी तुम्हारी माँ! परंतु बेचारी निराश होकर मर गयी। लेकिन मरने के पहले उसने तुममें परिवर्तन आने पर, मेहनत करके जीने का निश्चय करने के बाद, तुम्हारे सुपुर्द करने के लिए वह थोड़ी सी रक़म व दो एकड़ उपजाऊ ज़मीन मेरे हवाले करके गयी। ठहरो।’’ कहकर परांकुश घर के अंदर गया। रक़म और खेत से संबंधित काग़ज़ात लाकर सत्यवान के सुपुर्द कर दिया ।

सत्यवान ने उन्हें लेकर मुखिया को सादर प्रणाम किया। तब मुखिया परांकुश ने कहा, ‘‘सत्यवान, तुम्हारी माँ को विश्वास था कि किसी न किसी दिन तुम सुधरोगे और वह विश्वास आज सच हो गया। मेहनत करोगे, इज्ज्त के साथ जीने का निर्णय कर लोगे, अच्छे मार्ग पर चलोगे तो माँ की दी हुई संपत्ति को दस गुना बढ़ा सकते हो। तुम खुद ज़रूरतमंद लोगों को जीने की राह दिखाने के योग्य बनोगे। मेहनत की कमाई से जीने में अपार सुख और आनंद है।

सत्यवान ने एक बार और मुखिया को प्रणाम किया और मन ही मन माँ के प्रति कृतज्ञता प्रकट की, जिसने उसके भविष्य के लिए इतनी सावधानी बरती। उसने उसी क्षण ठान लिया कि मेहनत करूँगा, लोगों का आदर-पात्र बनूँगा और माँ की आशा की पूर्ति करूँगा।