20 फ़रवरी 2010

युग पुरुष स्वामी ज्ञानानंद

स्वामी ज्ञानानंद जी महाराज का जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्ट्मी संवत 1902 को अर्धरात्रि में वृष लग्न में उत्तर प्रदेश के मेरठ नामक नगर में हुआ था। इनके पिता श्री मधुसूदन मुखर्जी हुगली जिले से आकर मेरठ में बसे थे। व्यवसाय का संचालन करते थे, किन्तु रहन- सहन राजसी था। स्वामी जी महाराज अपने माता- पिता की आठवी संतान थे, जिनका शरीर हष्ट- पुष्ट गौर्वती, महोहर और मोहक होने पर भी अत्यंत कोमल और सुकुमार था, आठ वर्ष की अवस्था में ही इनका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ, इच्छा न होने पर भी माता के विशेष आग्रह पर गृहस्थ जीवन स्वीकार किया और पर्याप्त समय तक इसका निर्वाह भी किया।

ये सरल चित, दयालु, क्रियाविधिग्य, संगीत काव्य, बागवानी के भी प्रेमी थे। इन्होने प्रारंभिक अवस्था में ही संस्कृत, हिंदी, बांगला तथा अंग्रेगी लिखने -पढने का अच्छा अभ्यास कर लिया था।

श्री ज्ञानानंद जी बचपन एवं गृहस्थ जीवन का नाम श्री यज्ञेश्वर मुखर्जी था और अपने बंगले में ही आश्रम बनाकर साधना और तत्त्व चिंतन किया करते थे, किन्तु संन्यास ग्रहण करने के लिये इन्होने परमहंस परिव्राजकाचार्य श्री 108 स्वामी केशवानंद जी महाराज से दीक्षा ग्रहण की जो तांत्रिक सदना तथा क्रिया सिद्वांश में पूर्ण पारंगत थे। दीक्षा ग्रहण के बाद आपने आबू पर्वत पर जाकर तपस्या की, वहां वशिष्ठ आश्रम में तपस्या कर लौटने के बाद किशनगढ में प्रथम यज्ञ, मथुरापुरी में सनातन धर्म के उद्दार और विस्तार में निगमागम मंडली की स्थापना की।

देश के धार्मिक संगठनों को परस्पर संगठित करने के उद्येश्य से स्वामी जी मथुरा में ही चैत्र कृष्ण 4 शुक्रवार संवत 1958 ता. 28 मार्च 1902 को श्री भारत धर्म महामंडल के नाम से एक संस्था को स्थापना की और दरभंगा नारेह्स इसके अध्यक्ष बनाए गए। अपनी स्थापना काल से अब तक के सौ वर्षों में श्री भारत धर्म महामंडल ने लगभग पचास वर्षों तक स्वामी जी के निर्देशन में ही कार्य किया।

स्वामी जी महाराज ने अपने जीवन काल में सनातन धर्म के उत्थान के लिये देश के अनेक धार्मिक संगठनों को संगठित किया, धर्म के कल्पद्रुम, धर्म विज्ञानं, मीमांसा शास्त्र, गुरुगीता, संयासगीता आदि पुस्तकों तथा अनेक पत्र-पत्रिकाओं का समय-समय पर सम्पादन एवं प्रकाश किया। संस्कृत, अंग्रेजी, बंगला आदि भाषाओं में लगभग 200 ग्रंथों का प्रणयन किया। देश के विभिन्न भागों में सम्मलेन आयोजित किया। शंकराचार्य द्वारा स्थापित बदरीक आश्रम, ज्योतिश्माथ तथा चित्तौरगढ का पुनरुत्थान, धर्मालय संस्थान, धर्म प्रचारक निर्माण, गौवंश की रक्षा, महिला शिक्षा में स्वामी कि के कार्य सदैव स्मरण किये जायेंगे।

मथुरा से महामंडल कार्यालय स्वामी जी काशी लाये और यहाँ से ही अपना कार्य सञ्चालन किया। काशी हिन्दू विश्विद्यालय, काशी जीवदय विस्तारणी गौशाला, आर्य महिला महाविद्यालय गायत्री मन्दिर कि स्थापना में इनका योगदान था। स्वामी जी के शिष्यों में खैरोगढ कि महारानी सुरथ कुमारी और श्रीमती विवा देवी का नाम मुख्या रूप से आता है। श्री स्वामी दयानंद प्रमुख शिष्य तथा फलेह सिंह (उदैपुर) , महाराज रामेषर सिंह इनके सुभ्चिन्तकों में थे। विरोधियों ने समय-समय पर अपप्रचार भी क्या किन्तु शक्ति साधक स्वामी द्वारा स्त्रियों को भी दीक्षा देना साधना के अनुरूप ही था। 105 वर्ष कि अवस्था में काशी में ही माघ कृष्ण चतुर्थी संवत 2007 विक्रमी को इस महापुरुष के परमधाम गमन से सनातन धर्म की अपारक्षति हुई। स्वामी जी में श्रीकृष्ण की कर्मठता, और शंकराचार्य की विद्वता तथा महर्षि व्यास की सम्पादन क्षमता का अद्भुद समन्वय था। इन्होने दक्षिणा, साहित्य प्रचार से जो कुछ भी पाया, सब धर्म में ही व्यय किया। महामाया ट्रस्ट, विश्वेश्वर ट्रस्ट इनकी इसी निसप्रहता के परिणाम हैं। कबीर की तरह इन्होने 'ज्यों की त्यों घर दीन्ह चदरिया' को आजीवन सार्थक किया।