30 जनवरी 2010

प्रेम कहानीः काश! मैं वो खत न लिखता

श्वेता का हाथ मेरे हाथ में था और मेरी आँखों से बह रहे आंसू उसकी हथेलियों पर गिर रहे थे। पर वह निष्प्रभाव सहमी सी चुपचाप बैठी थी। मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ये वही श्वेता है जिसे देखते ही मुस्कुराने का दिल करता था। जिसकी मुस्कराहट ऐसी लगती थी जैसे गुलाब कि पंखुरियों के बीच एक मोती की माला राखी हो। आज श्वेता की उसी मुस्कराहट के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूं।

मुझे आज भी याद है वो दिन जब मैंने कॉलेज से आते समय अपने पड़ोस के घर में टैम्पो से सामान उतरते देखा था। घर पहुचने पर मैंने देखा एक अनजान महिला मेरी मां के साथ बैठकर चाय पी रही थी। मुझे देखते ही मां ने बताया यह पूनम जी हैं। हमारे बगल वाले घर में रहने आई हैं। मैं उन्हें नमस्ते कर, उनका हाल-चाल पूछकर अन्दर कमरे में चला गया। अगले दिन सुबह मै अपने छत पर टहल रहा था, तभी मेरी नज़र पूनम आंटी की तरफ गई। वहां एक लड़की कपडे सुखा रही थी। उसके गीले बालों से पानी टपक रहा था। सांवली सलोनी, काली आंखें, मासूम सा चेहरा और पावों में पायल। इस सादगी में भी उसका प्राकृतिक सौन्दर्य निखर रहा था।

वह श्वेता ही थी। मै मंत्रमुग्ध सा उसकी सुन्दरता को निठुर रहा था। तभी अचानक उसकी नज़र मुझ पर पड़ी। अपनी ओर एक अनजान लड़के को इस तरह निहारते देख वो थोड़ा घबरा गई और नीचे चली गई। मैंने घड़ी की ओर देखा तो नौ बज रहे थे। मुझे भी कॉलेज जाना था , इसीलिए मै भी नीचे चला गया। कॉलेज में मैं अपने दोस्तों के साथ बैठा बातचीत कर रहा था कि तभी मेरी नज़र मेन गेट पर रुकी और एक ऑटो से निकलती एक परिचित चेहरे पर चली गई। यह वही लड़की थी जिसे मैंने छत पर देखा था।

सफ़ेद चूडीदार सलवार सूट, खुले बाल, सांवला चेहरा, माथे पर छोटी सी बिंदी, कानों में झुमके, हाथों में चूड़ियां और पैरों में पायल, दिल्ली जैसे बड़े शहर में सुन्दरता और सादगी का ऐसा मिश्रण मैंने पहली बार देखा था। सफ़ेद सूट पर लाल दुपट्टा ऐसा लग रहा था जैसे सफ़ेद बादलों के बीच सूर्य की लालिमा फैली हो। उसके मासूम से चेहरे पर घबराहट की हल्की सी रेखा यह स्पष्ट कर रही थी कि वो नए शहर, नए लोग और नए कॉलेज को देख थोड़ी विचलित हो रही थी।

उसने पहले नज़र उठाकर चारों तरफ देखा, फिर नज़रें झुकाकर धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी। कॉलेज में नई छात्रा को आते देख कुछ पुराने छात्र-छात्राएं आगे बढे। सब लोगों को अपनी ओर आता देख वह थोड़ा और घबरा गई। लेकिन इससे पहले कि वे लोग उसे परेशान करते, मैंने दौड़कर उन्हें रोका। और बात परिचय तक टल गई। मेरे दोस्तों के द्वारा नाम पूछने पर मैंने पहली बार उसकी कोमल आवाज़ सुनी। उसका नाम था "श्वेता"।

उसका नाम और उसकी पोशाक देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे उसने अपने नाम को अपने रूप में ही ढाल लिया हो। बातचीत के क्रम में पता चला कि उसके पिता का तबादला दिल्ली हो गया था। इससे पहले वह पटना में कार्यरत थे। श्वेता कि पढाई वहीं चल रही थी। वहां कॉलेज के फर्स्ट ईयर की परीक्षा देकर पूरा परिवार दिल्ली उसके पिता के पास आ गया था। श्वेता का प्रवेश हमारी कक्षा में ही हुआ था। हमलोगों के बातचीत के लहजे और ठीक-ठाक बर्ताव के कारण धीरे-धीरे उसका संकोच और घबराहट जाता रहा। हमारी क्लास का समय हो रहा था इसीलिए मैंने श्वेता से भी साथ चलने को कहा। कक्षा में पहुचने के बाद मैंने पूरी कक्षा से उसका परिचय ऐसे करवाया जैसे मैं उसे काफी वक़्त से जानता था।

श्वेता बहुत ही मिलनसार लड़की थी। वह बहुत जल्दी सबसे घुलमिल गई। सभी छात्र उसे घेरे खड़े थे और वह हंस-हंस कर सबसे बात कर रही थी। न जाने क्यों लेकिन मै उसकी तरफ एक अनचाहा आकर्षण महसूस कर रहा था।

प्रोफ़ेसर साहब के आने के बाद एक बार फिर श्वेता का परिचय उनसे हुआ और सबने अपना-अपना स्थान ग्रहण किया। श्वेता आगे कि सीट पर खिड़की के पास बैठी थी। हल्की-हल्की हवा चल रही थी। श्वेता बड़े ध्यान से प्रोफ़ेसर साहब की बातें सुन रही थी। पर मेरा ध्यान तो बार-बार उसकी ओर ही जा रहा था। कभी-कभी हवा के झोंके उसके खुले बालों के कुछ लटों को उसके चेहरे पर बिखेर देते और वह अपने चेहरे से उन्हें हटाती तो उसका चेहरा किसी शायर की कल्पना की तरह लगने लगता।

किसी तरह क्लास ख़त्म हुई और हम कक्षा से बहार निकले। कक्षा से निकलने के बाद मैं उसके पास गया और साथ घर चलने को कहा। पहले तो वो थोड़ा हिचकिचाई पर बाद में मेरे कहने पर मान गई।

बस में बैठने के बाद हमारी बातचीत का क्रम आगे बढा। मैं उसके परिवार, स्वाभाव, रुचियों, अरुचियों के बारे में जानने लगा। वह भी काफी हद तक मुझसे खुल चुकी थी। वह अपने माता-पिता कि इकलौती संतान थी। पर इसके बावजूद भी वह बड़े ही सरल स्वाभाव की थी जो कि मुझे उसके तरफ सबसे ज्यादा आकर्षित कर रहा था। उससे बातचीत करते-करते समय कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला। हमारा बस स्टॉप आ गया था। बस से उतरने के बाद हम दोनों अपने-अपने घर आ गए। अब हमारा मिलना-जुलना बढ़ गया। हम कॉलेज साथ जाते, साथ आते, फिर भी समय-समय पर मिलते रहते। जल्द ही हम बड़े अच्छे दोस्त बन गए। हमारा परिवार भी काफी नज़दीक आ चुका था, इसीलिए हमें कोई रोक-टोक नहीं थी।

इधर कॉलेज कि पढ़ाई समाप्त हो चुकी थी। हम दोनों ग्रैजुएट हो चुके थे। मेरा हमेशा से यही सपना रहा था कि मैं एक कंप्यूटर इंजिनियर बनू, इसीलिए मैंने बेंगलुरु के एक इंस्टिट्यूट से आगे की पढ़ाई करने का फैसला किया। श्वेता ने अपनी पढ़ाई वहीं से जारी रखने का फैसला किया। मुझे बेंगलुरु में दो साल रहकर पढ़ाई करनी थी। मुझे एक ओर अपने परिवार और श्वेता से दूर होने का दुःख था तो दूसरी ओर अपना सपना पूरा करने का निश्चय।

जिस दिन मैं जाने वाला था श्वेता सुबह ही मेरे घर आ गई। वह मंदिर से मेरे लिए प्रसाद लाई थी। उसने पहले मुझे टीका किया और प्रसाद दिया और बाद में मेरी ओर उपहार का एक छोटा सा पैकेट बढ़ाया। जिस पर लिखा था "मेरे सबसे अच्छे दोस्त के लिए"।

मैंने जब वह पैकेट खोला तो एक बहुत खुबसूरत कलाई घडी निकली। उसने मुस्कुराते हुए पूछा, " पसंद आई ?" मैंने कहा, " बहुत, पर इसकी क्या जरुरत थी ?"

उसने कहा, " इसी देखकर तुम कभी-कभी मुझे याद तो कर लिया करोगे।" मैंने मन-ही-मन कहा कि याद तो उन्हें किया जाता है जिसे दिल कभी भूल पाए और उसे तो मैं कभी भूल ही नहीं सकता था। मेरे पापा के साथ वो भी मुझे छोड़ने स्टेशन आई। उसने बड़े हक़ से मुझसे अपना ध्यान रखने को कहा। मैं कुछ कह तो नहीं पाया, पर हां में गर्दन हिला दी। ट्रेन आई, मैं चढ़ गया और ट्रेन चल पड़ी। हमने हाथ हिलाकर एक-दूसरे से विदा ली। मैंने देखा कि उसकी आंखें नम थीं पर चेहरे पे थी मुस्कराहट। जैसे वह मुझे रोते हुए विदा नहीं करना चाहती थी। बेंगलुरु पहुंचने के बाद भी हम पत्र और टेलिफोन के माध्यम से जुड़े रहे। जब भी मैं अकेला होता, उसका चेहरा मेरी आंखों से सामने घूमता रहता। कभी-कभी मैं भावुक हो जाया करता था और एक दिन मैं इसी भावुकता में बहकर मैंने उसे पत्र में कुछ ऐसी बातें लिख दी जिसे वो मेरे बारे में कभी सोच भी नहीं सकती थी।

मेरे उस पत्र के बाद काफी दिनों तक उसका कोई जवाब नहीं आया। लेकिन कुछ दिनों के बाद उसका पत्र आया। मैं बहुत खुश था। लेकिन पत्र पढने के बाद ही मैं आत्मग्लानि से भर गया। पत्र में श्वेता ने सिर्फ एक पंक्ति लिखी थी, " मैंने तुम्हे अपना सबसे अच्छा दोस्त माना था, पर आज तुमने मुझसे वह भी छीन लिया। इसे पढ़ने के बाद मेरे पास पछताने के सिवा और कोई चारा नहीं था। मैंने भावुकता में बहकर अपना सबसे प्यारा दोस्त भी खो दिया था। मैंने उसे माफ़ी मांगने के लिए बहुत सारे पत्र लिखे, टेलीफोन पर बात करने की कोशिश की, पर शायद मैंने उसके दिल को बहुत चोट पंहुचा दी थी।

मैं बहुत बेचैन और परेशान हो गया। पर मैंने खुद को यह कहकर दिलासा दिया कि पढ़ाई पूरी होते ही मैं उससे मिलकर सारी ग़लतफ़हमी दूर कर दूंगा। मुझे क्या पता था कि मेरा ऐसा सोचना ही मेरे जीवन की सबसे बड़ी भूल बन जाएगा, जिसका पश्चाताप मुझे जिंदगी भर रहेगा।

मेरी पढाई पूरी होने के बाद जब घर जाने का समय आया तो मैं ख़ुशी और उमंग से भर गया। मैंने अपने घरवाले, मां, पापा और श्वेता के लिए कई उपहार ख़रीदे। दिल्ली स्टेशन पर मुझे पिताजी लेने आये। उनका आशीर्वाद लेने के बाद मैंने उनसे घर का हाल-चाल पूछा और बाहर निकलकर ऑटो पर सवार हो गया।

स्टेशन से घर के सफ़र में मैं श्वेता के ख्यालों में डूबा रहा। मैं रस्ते भर यही सोचता रहा कि उससे मिलूंगा तो उससे क्या कहूंगा और वो क्या जवाब देगी ? मेरे उपहार को वो लेगी भी या नहीं ?

घर पहुंचने के बाद मेरा ध्यान उसके घर की ओर गया। वहां वो रौनक नहीं थी जो दो साल पहले हुआ करती थी। मेरे घर पर मेरी मां पलकें बिछाए मेरा इंतज़ार कर रही थी। पहुंचते ही उन्होंने मुझे अपने सीने से लगा लिया। मां से मिलने के बाद मेरी नज़र एक ओर खड़ी पूनम आंटी पर गई। मैंने पैर छूकर उनका आशीर्वाद और हालचाल लिया। उनसे श्वेता के बारे में पूछने पर थोडा उदास होते हुए बताया कि एक महीने पहले उसकी शादी हो गई और वो अपने ससुराल चली गई।

मुझे जैसे एक धक्का सा लगा। मेरी मां ने मुझे बताया कि उसने मुझे ये बात बताने के लिए इसीलिए मना किया था कि उस समय मेरी परीक्षा चल रही थी। आज मुझे अहसास हुआ कि उस समय देर करके मैंने कितनी बड़ी गलती की। आज मुझे लगा कि मैंने सही मायने में अपना सबसे अच्छा दोस्त खो दिया। रात भर मैं बेचैन और परेशान रहा। कभी मैं उसके लिए लाए झुमके को देखता तो कभी उसके द्वारा दी गई घड़ी को निहारता। पर सुबह होते-होते मैंने खुद को संभाला।

अब दिल में बस यही चाहत थी कि मेरा दोस्त जहां भी रहे खुश रहे। मैं खुद को सामान्य बनाने की कोशिश करने लगा। पर उसकी यादें अकेले में उसका पीछा नहीं छोड़ती थी। इधर मुंबई में मेरी नौकरी की अर्जी मंजूर हो गई और मैं कुछ दिन तक घर में रहने के बाद यहां चला आया। यहां मैं अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गया और धीरे-धीरे उसे भूलने लगा।

कहते हैं समय बीतते देर नहीं लगती। 6 महीने कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला। अब मुझे घर की याद सताने लगी थी। मैंने दस दिन की छुट्टी ली और घर आ गया। मैंने सोचा कि अचानक घर पहुचकर सबको चौंका दूंगा, पर घर पहुचने पर वहां का माहौल देखकर बुरी तरह से चौंक गया। मेरे घर पर ताला लगा था। मेरी मां श्वेता के घर में बैठी श्वेता के रोते माता-पिता को सांत्वना दे रही थी। मैं घबरा गया और दौड़कर अन्दर गया। मुझे देखते ही सब चौंक गए। श्वेता की मां मुझसे लिपट कर रोने लगी. मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था, पर फिर भी आंटी को सांत्वना दे रहा था और बात जानने की कोशिश कर रहा था। पर वो थी कि बस रोये ही जा रही थीं।

मेरी मां आईं और उन्होंने आंटी को बिठाया, पानी पिलाया और फिर मैंने इशारे से उन्हें एक कोने में बुलाया। मेरे पास आकर मां ने बताया कि श्वेता की शादी के समय श्वेता के पिता ने लड़के वालों की सभी मांगों को पूरा किया था। शादी के कुछ दिनों के बाद तक सब ठीक-ठाक रहा। पर कुछ दिनों के बाद श्वेता को प्रताड़नाएं दी जाने लगीं। श्वेता ने इसके बारे में अपने माता-पिता को बताया तो उसके ससुराल वालों ने अपनी कुछ नई मांगे उनके सामने रख दीं। श्वेता के पिता ने अपनी बेटी की ख़ुशी के लिए इन्हें भी पूरा किया। पर इसके बाद ससुराल वालों की मांगे बढ़ने लगीं और उधर श्वेता पर शारीरिक और मानसिक यातनाएं।

श्वेता शायद अपने माता-पिता को परेशान नहीं करना चाहती थी। इसीलिए सारे जुल्म चुपचाप सहती रही। इसी घुटन और उत्पीड़न के कारण वह धीरे-धीरे अपना मानसिक संतुलन खोने लगी। उसकी मानसिक स्थिति बिगड़ती देखकर भी ससुराल वालों ने न तो उसका इलाज करवाया और न ही उसके माता-पिता को इस बात की खबर होने दी। उस पर अत्याचार और बढ़ गए और कुछ ही समय में मेरी मासूम श्वेता उस स्थिति में पहुच गयी जिसे लोग "पागल" कहते हैं। श्वेता के परिवार वालों की दुष्टता में अब भी कोई कमी नहीं आई थी। उन्होंने श्वेता को बिना किसी को बताये पागलखाने में भर्ती करा दिया।

आज सुबह जब किसी तरह अंकल-आंटी को यह बात किसी तरह पता चली तो वे दोनों भागे-दौड़े श्वेता के पास पहुचे। पर उसकी हालत देखते ही वे दोनों फूट-फूट कर रोने लगे। जिस बेटी को उन्होंने पलकों पर बिठाकर पाला था, आज उसकी स्थिति ऐसी थी कि कोई अजनबी भी उसे देखता तो उसकी भी आंखें भर आतीं।

मां मुझे लगातार बताये जा रही थी और मेरे आँखों से आंसू लगातार बहे जा रहे थे। मेरा दिल दुःख और गुस्से से भर गया था। मैं अंकल के पास गया और उनसे कानूनी कार्रवाई के बारे में कहा था तो उन्होंने कहा कि उन्होंने प्राथमिकी तो लिखा दी है, पर कुछ नहीं हो सकता क्योंकि श्वेता के ससुरालवालों ने पहले ही धोखे से श्वेता के दस्तखत तलाक के कागज पर ले लिए थे। श्वेता के बारे में पूछने पर पता चला कि उन्होंने उसे एक अच्छे मानसिक चिकित्सालय में दाखिल करवा दिया है।

मैं उसी वक़्त श्वेता से मिलने चल पड़ा। अस्पताल पहुचने पर मैंने देखा कि श्वेता के कमरे में और भी कई तरह के मानसिक रोगी थे। कोई हंस रहा था, कोई रो रहा था, कोई बोले जा रहा था, पर श्वेता अपने बेड़ पर चुपचाप सिमटकर नज़रे झुकाए बैठी थी। उसका सांवला रंग कला पड़ चुका था। उसकी वो प्यारी आंखें पीली पड़ चुकी थीं और काफी अन्दर तक धंस गई थीं। उसके बाल उलझे थे और काफी गंदे हो गए थे। जिन हाथों में कभी चूड़ियों कि खनखनाहट होती थी, आज वही हाथ जगह-जगह पर चोटों के निशान से भरे पड़े थे।

उसकी यह स्थिति देखर मेरा मन हुआ कि मैं उससे लिपटकर खूब रोऊं। मैं उसके पास गया, उसका चेहरा अपने हाथ में लिया और अपनी ओर उठाया, पर उसने मेरी ओर देखा तक नहीं। मेरी आंखों से आंसू बह रहे थे। मैंने उसे बहुत झकझोरा और मुझसे बात करने को कहा, पर मेरे सबसे प्यारे दोस्त ने अपनी पलकें भी नहीं झपकी।

थक कर मैंने उसका हाथ अपने हाथों में लिया और उससे कहा कि मेरी छोटी सी गलती माफ़ नहीं कर सकती हो? कैसी दोस्त हो तुम? मुझे उस गलती की इतनी बड़ी सजा मत दो।

मैं रोते हुए यही सोच रहा था कि काश मैंने वह पत्र न लिखा होता। काश मैं उसका सबसे अच्छा दोस्त बनकर ही रहा होता, तो शायद वो मुझसे अपने ऊपर हो रहे अत्याचार के बारे में बता पाती, तो शायद समय रहते मैं उसके लिए कुछ कर पाता। पर अब मेरे पास पछताने के सिवा और कोई चारा नहीं था और हाथ में था सिर्फ एक "काश"!