05 जनवरी 2010

भागवत (सुखसागर) की कथाएँ – दक्ष यज्ञ का नाश



जब भगवान शंकर जी को नारद जी से सती के भस्म होने तथा उनके सेवकों को दक्ष के यज्ञ से भगा देने की सूचना मिली तो उनके क्रोध का पारावार न रहा। उन्होंने अति क्रोधित होकर अपनी एक जटा को, जो अग्नि तथा विद्युत के समान तेजोमय थी, नोंच डाला और उसे पृथ्वी पर पटका। उससे तत्क्षण एक विशालकाय पुरुष प्रकट हुआ। उसकी सहस्त्र भुजाएँ थीं, श्याम रंग था, दाढ़ें विकराल एवं तीक्ष्ण थीं तथा अग्नि के समान जलते तीन नेत्र थे। उसकी लाल लाल जटायें अग्नि के समान थीं, कण्ठ में मुण्ड माला और हाथों में शस्त्रास्त्र थे। उसने भगवान भूतनाथ से पूछा, “हे देवाधिदेव! मुझे क्या आज्ञा है?” भगवान शंकर ने कहा, “हे वीरभद्र! तू मेरे अंश से प्रकट हुआ है इसलिये मेरे सम्पूर्ण पार्षदों का अधिपति होकर शीघ्र ही दक्ष प्रजापति के यज्ञ में जा और उसे नष्ट-भ्रष्ट कर दे।


वीरभद्र तुरन्त महादेव जी की परिक्रमा करके दक्ष प्रजापति के यज्ञ की ओर हाथ में त्रिशूल ले कर दौड़े। उनके वेग से पृथ्वी काँपने लगी और उनके सिंहनाद से सारा आकाश गूँज उठा। वे साक्षात् संहारकारी रुद्र थे। उनके पीछे बहुत से सेवक अनेक प्रकार अस्त्र-शस्त्र लेकर दौड़ पड़े। कुछ ही क्षणों में वीरभद्र ने अपने अनुचरों सहित दक्ष प्रजापति के यज्ञ मण्डप को चारों ओर से घेर लिया। उनकी भयंकरता से दक्ष प्रजापति भी भयभीत हो गये। भगवान रुद्र के सेवकों ने आते ही यज्ञ मण्डप को उखाड़ना आरम्भ कर दिया। किसी ने खम्भे उखाड़े, किसी ने कलश तोड़े, किसी ने यज्ञ की अग्नि में रुधिर की वर्षा कर दी, किसी ने यज्ञशाला नष्ट कर दी तो किसी ने सभा मण्डप और अतिथि मण्डप का नाश कर डाला। वीरभद्र और उनके अनुचरों ने भयंकर विनाश लीला किया। वीरभद्र ने दक्ष प्रजापति को बाँध लिया। वहाँ आये हुये समस्त ऋषि-महर्षि, देवतागण आदि भाग निकले किन्तु भृगु ऋषि हवन करते रहे। इस पर वीरभद्र ने भृगु ऋषि के नेत्र निकाल लिये और दक्ष का सिर काट कर यज्ञ की अग्नि में डाल दिया। दक्ष प्रजापति के यज्ञ का नाश हो गया।

इस घटना से भयभीत होकर सारे देवताओं ने ब्रह्मा जी के पास जाकर महादेव जी के क्रोध को शान्त करने का अनुरोध किया। उनके इस अनुरोध पर ब्रह्मा जी समस्त देवताओं सहित कैलाश पर्वत पर गये और शिव जी की स्तुति करके कहा, “हे शम्भो! आप यज्ञ-पुरुष हैं इसलिये आपको यज्ञ का भाग पाने का पूर्ण अधिकार है, किन्तु इस दुर्बुद्धि दक्ष ने आपको यज्ञ-भाग नहीं दिया था इसी कारण से उसके यज्ञ का नाश हुआ। मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप इस मूर्ख दक्ष को क्षमा करके इसका कटा हुआ सिर जोड़ दीजिये तथा इस अपूर्ण यज्ञ को फिर से पूर्ण करने अनुमति दीजिये। भृगु ऋषि को भी क्षमादान करके उनके नेत्र उन्हें पुनः प्रदान करने की कृपा कीजिये।”

ब्रह्मा जी के इस प्रकार स्तुति और प्रार्थना करने पर महादेव जी ने शान्त होकर कहा, “हे जगत् के कर्ता ब्रह्मा जी! मैं न तो दक्ष जैसे दुर्बुद्धि और अज्ञानी पुरुषों के दोषों की ओर कभी ध्यान नहीं देता हूँ और न कभी उनकी चर्चा ही करता हूँ। केवल मैंने उसे उपदेश के रूप में यह नाम मात्र का दण्ड दे दिया है जिससे उसका अहंकार नष्ट हो जावे। शापवश उसे उसका सिर पुनः प्राप्त नहीं हो सकता अतः उसके धड़ को बकरे के सिर के साथ जोड़ दिया जावे। भृगु ऋषि को मित्र देवता के नेत्र मैंने प्रदान किया। दक्ष के इस यज्ञ को पूर्ण करने की अनुमति भी मैं प्रदान करता हूँ।”

शिव जी के ऐसे वचन सुन कर ब्रह्मा जी सहित समस्त देवता प्रसन्न हुये और उन्हें दक्ष के यज्ञ के लिये निमन्त्रित किया। इस प्रकार शिव जी की उपस्थिति यज्ञ पूर्ण हुआ।