02 दिसंबर 2009

आनन्द


जिसकी जीवन भर सबको तलाश रहती है उसी को आनंद कहते हैं। सम्पूर्ण सुख-समृद्धि का सूचक शब्द है। और सृष्टि विस्तार का मूल कारक भी है। आनन्द के बिना सृष्टि नहीं हो सकती। आनन्द प्राप्त हो जाने के बाद कुछ और पाने की कामना भी नहीं रह जाती। आनन्द और सुख एक नहीं हैं। आनन्द आत्मा का तत्व है, जबकि सुख-दु:ख मन के विषय हैं। किसी भी दो व्यक्तियों के सुख-दु:ख की परिभाषा एक नहीं हो सकती। हर व्यक्ति का मन, कामना, प्रकृति के आवरण भिन्न होते हैं। अत: हर व्यक्ति का सुख-दु:ख भी अलग-अलग होता है। आनन्द स्थायी भाव है।
लोग अनेक प्रकार के स्वभाव वाले होते हैं। एक शरीर जीवी इनका सुख शरीर के आगे नहीं जाता। व्यायाम-अखाडे से लेकर सुख भोगने तक ही सीमित रहता है। इसके आगे इनका सुख-दु:ख भी नहीं है। मनोजीवी अपने मनस्तंभ में आसक्त रहता है। कहीं किसी कला में रमा रहता है या नृत्य, गायन, वादन में। ये तो देश-काल के अनुरूप बदलते रहते हैं। हर सभ्यता की अपनी कलाएं और मन रंजन होते हैं। इनके जीवन में सांस्कृतिक गंभीरता का अभाव रहता है। इन्हीं विद्या का योग आत्मा से नहीं बन पाता। चंचल मना रह जाते हैं। प्रवाह में जीने को ही श्रेष्ठ मानते हैं। बुद्धिवादी आदतन नास्तिक बने रहना चाहते हैं। किसी न किसी दर्शन को लेकर अथवा किसी अन्य के विचारों पर उलझते ही नजर आते हैं। मनोरंजन, हंसी-मजाक से सर्वथा दूर, न शरीर को स्वस्थ रखने की चिन्ता होती है। स्वभाव से सदा रूक्ष बुद्धिमानों की कमी नहीं है। शरीर जीवियों को मन की कोमलता अनुभूतियों का कोई अनुभव ही नहीं होता। एक वर्ग स्वयं आत्मवादी मानकर जीता है। सहज जीवन से पूर्णतया अलग होता है।
मूलत: ये चार श्रेणियां हैं, जिनमें साधारण व्यक्ति जीता है और आनन्द को खोजता रहता है। खण्ड दृष्टि से अखण्ड आनन्द किसको अनुभव हो सकेगा आनन्द तो मूल मन (अव्यय मन) के साथ जुडा रहता है। भक्ति में आह्लादित होने जैसा है। आनन्द प्राप्ति की पहली शर्त यही है कि व्यक्ति समग्रता में जीना सीखे। उसके शरीर, मन, बुद्धि आत्मा के साथ जुडे रहें। आत्मा से जुडा आनन्द तभी तो शरीर-मन-बुद्धि की अनुभूति में आएगा। योग का एकमात्र लक्ष्य भी यही है।
इसके विपरीत सुख-दु:ख मानव मन की कल्पना पर आधारित रहते हैं। इनका सम्बन्ध इन्द्रियों एवं एन्द्रिय सुख-दु:ख से ही रहता है। तात्कालिक भी होता है। किसी विषय अथवा परिस्थिति के कारण पैदा होता है और उसके साथ विदा भी हो जाता है। जब भी व्यक्ति के जीवन में समग्रता टूटती है, वह तात्कालिक सुख में ही अटक जाता है। उसके लिए सुख-दु:ख भी एक द्वन्द्व बनकर रह जाता है। गहनता तो होती ही नहीं है। क्योंकि वह पूर्ण मानव की तरह जीता ही नहीं है। अनेक पशु-पक्षी भी इन क्षेत्रों में मानव से आगे निकल जाते हैं। चाहे शारीरिक बल में हों अथवा बुद्धि के स्तर पर। मानव की श्रेष्ठता तो इनकी समग्रता में ही है।जब किसी भी कार्य में शरीर-मन-बुद्धि और आत्मा एक साथ जुडेंगे, तभी व्यक्ति सुख-दु:ख के मिथक को तोड सकता है। शरीर और बुद्धि को तो सुख-दु:ख का अनुभव ही नहीं होता। मन को होता है, जो स्वयं आवरित होता है। बुद्धि स्वयं आवरित है। अत: जो सामने दिखाई पडता है, उसी के आधार पर सुख-दु:ख का ग्रहण कर लेता है। इन्द्रियों की पकड सूक्ष्म पर होती ही नहीं। अत: मन को बार-बार स्थूल और दृश्य पर टिकाती रहती हैं। मन पर इंद्रियों द्वारा विषय आ-आकर पडते हैं। चंचलता के कारण मन खुद को रोक नहीं पाता और प्रवाह में बह पडता है। उसी को सुख मान बैठता है।
ज्ञान के योग से जैसे ही बुद्धि में विद्या का प्रवेश होने लगता है, मन का स्वरूप बदलने लगता है। मन की भूमिका, दिशा और ग्राह्यता बदलने लगती है। अब वह भीतर की और भी मुडने लगता है। प्रवाह की गति धीमी होने लगती है। अब मन इच्छाओं का आकलन करके ही स्वीकृत करने लगता है। हर इच्छा को पूरी करने नहीं भागता। मन की संवेदना जाग्रत होने लगती है। यहीं से आनन्द का मार्ग प्रशस्त होता है।
जिस प्रकार किसी पात्र में भरा जल हिलता है, वैसे ही संवेदना के कारण मन में भी रस का प्रवाह बनने लगता है। यह प्रेम प्रवाह आनन्द तक पहुंचने का मार्ग है। रसानन्द और आनन्द एक ही है। रसा को ही ब्रह्म कहते हैं। संवेदना के जागरण से व्यक्ति के धर्म में परिवर्तन आता है। पाषाण-मन अब पिघलने लगता है। दया-करूणा दिखाई पडने लगते हैं। किसी को दु:खी देकर आंसू बहने लगते हैं। यह आंसू भी उसी आनन्द का दूसरा छोर है। अधिक प्रसन्नता भी आंसू लाती है। अत्यन्त दु:ख की घडी में रोते-रोते भी हंसी छूट जाती है।
व्यक्ति जैसे-जैसे स्वयं को जानने लगता है, उसी क्रम में उसका बाहरी व्यवहार भी बदलता जाता है। उसके अहंकार और ममकार भी द्रवित होने लगते हैं। कल्पित सुख-दु:ख अब उसे स्पष्ट समझ में आने लगते हैं। उनके अर्थ बदल जाते हैं। मन के साथ-साथ प्राणों का व्यापार बदलता है। प्राण सदा मन के साथ रहते हैं और मन का अनुसरण करते हैं। मन की इच्छाओं का स्वरूप बदल जाता है। इनको खाना-पीना-पहनना जैसे क्षेत्रों में आसानी से देखा जा सकता है। व्यक्ति स्वचिन्तन में व्यस्त रहने लग जाता है। अब मिठास किसी अन्य स्तर पर दिखता है।
जैसे-जैसे प्राण उध्र्वगामी होते हैं, चिन्तन के विष्ाय बदलते हैं। व्यक्ति का आभा मण्डल बदलता है। आकाश से कौन से प्राण आकर्षित होंगे, किन प्राणों का आकाश में विसर्जन होगा, यह अनायास ही सारा क्रम परिवर्तित हो जाता है। नए भावों के अनुरूप नए प्राण आते हैं। पुराने विचारों की श्रृंखला टूटने लगती है। व्यक्ति का मन अन्नमय और मनोमय कोश के आगे विज्ञानमय कोश में प्रवेश करने लगता है। प्रज्ञा जाग्रत होने लगती है। प्रज्ञा के सहारे व्यक्ति अपने सूक्ष्म स्तर को समझने लगता है। स्थूल की तरह सूक्ष्म का भी परिष्कार करने लगता है। प्रकृति के आवरणों का हटाता है। सत्व में स्वयं को प्रतिष्ठित करने का प्रयास करता है। अब तक व्यक्ति का मन इतना निर्मल हो चुका होता है कि वह प्राणी मात्र के प्रति संवेदनशील होने लगता है। मुख मण्डल पर शान्ति और प्रसन्नता का भाव सहज रूप से स्थायी होने लगता है। वैखरी, मध्यम को पार करके पश्यन्ति में, मानसी धरातल पर जीने लगता है। बाहर जुडे रहते हुए भी बेलाग हो जाता है। उसकी कामनाओं की श्रंखला भी टूट जाती है। मन मर जाता है। ह्वदय रूपी अक्षर प्राण-ब्रह्मा-विष्णु इन्द्र का स्वरूप दिखाई देते ही एक आह्लाद प्रकट होता है। इसी के सहारे से व्यक्ति स्थायी आनन्द में प्रतिष्ठित हो जाता है।