09 दिसंबर 2009

स्वर्ग और नरक


गणेश भक्त मुद्गल के परोपकार के कार्यों से प्रसन्न होकर एक बार देवराज इंद्र ने गणेश से कहा, 'मेरी इच्छा है कि मुनि मुद्गल को स्वर्ग में लाकर उनका सम्मान किया जाए।' इस पर नारद जी बोले, 'लेकिन क्या मुनि स्वर्ग में आने को तैयार होंगे?' वहां उपस्थिति सभी लोगों ने आश्चर्य से कहा, 'स्वर्ग में आने के लिए तो पृथ्वी लोक के सभी लोग, चाहे वे संत हों या किसान, लालायित रहते हैं। यह तो मुनि मुद्गल का सौभाग्य है कि इंद्र स्वयं उन्हें यहां आमंत्रित कर रहे हैं।' नारद ने कहा, 'फिर भी एक बार उनसे पूछ तो लेना चाहिए।'
इंद्र ने अपने दो दूतों को मुनि मुद्गल के पास भेजा। दूतों ने जब मुनि को इंद्र का संदेश सुनाया तो वह बोले, 'देवदूतों, आप तो हमारे अतिथि हैं। हम आप का सम्मान करते हैं लेकिन मैं पृथ्वी लोक छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगा। मेरी जरूरत पृथ्वी पर है, स्वर्ग लोक में नहीं। दुखियों की सेवा करके मुझे जो आनंद यहां मिल रहा है, वैसा स्वर्ग लोक में नहीं मिलेगा।' देवदूतों ने कहा, 'मुनिवर, पृथ्वी लोक का हर व्यक्ति स्वर्ग में जगह पाने के लिए उत्सुक रहता है। फिर आप क्यों नहीं जाना चाहते?' मुनि ने कहा, 'वत्स, स्वर्ग और नरक तो पृथ्वी पर भी है। यह हमारी इच्छा पर है कि इसे स्वर्ग बनाएं या नरक। परोपकार के कार्य करके पृथ्वी को स्वर्ग बनाया जा सकता है और अधर्म का काम करके नरक। मैं पृथ्वी को स्वर्ग बनाने का काम कर रहा हूं। आप देवराज इंद्र से कहना कि मैं अपनी कुटिया छोड़ कर उनके स्वर्ण सिंहासन पर बैठने का दुख सह नहीं पाऊंगा।'
यह वार्तालाप स्वर्ग लोक मैं बैठे इंद्र ध्यान से सुन रहे थे। वह नारद की ओर देख कर बोले, 'उनका पूरा जीवन परोपकार के कार्यों में व्यतीत हो रहा है, उनके पास स्वर्ग और नरक में अंतर करने का समय ही कहां है। अब हमें स्वयं महर्षि के पास जाकर उन्हें सम्मानित करना होगा।'