04 नवंबर 2009

भारतीय संस्कृति – एक नजर में


भारतीय संस्कृति के ढाँचे में अलग-अलग युगों में समय, काल और परिस्थितियों के अनुसार तथा उन युगों की परंपरा, रीति-रिवाज और लोगों के विचारों एवं मान्यताओं के अनुसार अनेकों बार परिवर्तन हुआ है। इसी कारण से आज भी भारतवर्ष के अलग-अलग क्षेत्रों में अनेक प्रकार की संस्कृतियाँ, भाषायें,
परंपराएँ, रीति रिवाज और मान्यताएँ पाई जाती हैं।

भारत में हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख जैसे अनेक धर्मों और संप्रदायों का आविर्भाव हुआ जिनका प्रभाव न केवल भारत के वरन विश्‍व के अनेकों देशों के निवासियों पर आज भी देखने को मिलता है। दसवीं शताब्दी के बाद से भारत में पारसी, तुर्क, मुस्लिम आदि विदेशी संस्कृतियों का प्रभाव पड़ना आरम्भ हो गया
जिसके कारण यहाँ की संस्कृति में विभिन्नता और अधिक हो गई।

मार्क ट्वेन का मत है कि भारत मानव वंश का उद्‍गम, अनेक भाषाओं तथा बोलियों की जन्म-स्थली, इतिहास की माता, पौराणिक एवं अपूर्व कथाओं की मातामह (दादी) और अनेक परम्पराओं की प्रमातामह (परदादी) है। मानव इतिहास की अत्यंत बहुमूल्य उपलब्धियाँ भारत के खजाने की ही देन है। (India is the cradle of the human race, the birthplace of human speech, the mother of history, the grandmother of legend, and the great grand mother of tradition। Our most valuable and most astrictive materials in the history of man are treasured up in India only!) भारत के विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित भारतीय संस्कृति को अनेक भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है। भारत पर विश्‍व के अनेकों धर्मों तथा संप्रदायों का भी प्रभाव रहा है जिसके परिणामस्वरूप यहाँ पर विभिन्न धार्मिक-सांप्रदायिक भावनाओं के मिश्रण से परिपूर्ण संस्कृतियों का भी प्रादुर्भाव भी हुआ। जहाँ भारत के ग्रामीण तथा कस्बाई क्षेत्रो में आज भी प्राचीन संस्कृतियों का प्रभाव बना हुआ है वहीं देश के बड़े नगरों में इन संस्कृतियों का विलोप होता जा रहा है और वैश्‍वीकरण का प्रभाव बढ़ता जा रहा है।

भाषा
प्रारम्भ से ही भारत में मूलतः दो प्रकार की भाषाएँ रही हैं – आर्य (उत्तर भारतीय) और द्रविड़ (दक्षिण भारतीय)। किंतु भारत का विस्तार अत्यंत विशाल होने के कारण यहाँ के विभिन्न क्षेत्रों में अनेकों प्रकार की भाषाओं तथा बोलियों का प्रचलन है तथा इन सभी भाषाओं और बोलियों पर भारत की मूल दो भाषाओं में से किसी न किसी का प्रभाव रहा है।

वेष-भूषा
जिस प्रकार से भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक प्रकार की भाषाएँ एवं बोलियों का प्रचलन है उसी प्रकार उन क्षेत्रों की वेश-भूषाएँ भी अलग-अलग प्रकार की हैं।

साहित्य
यद्यपि आज भारतीय साहित्य में विदेशी साहित्य का प्रत्यक्ष प्रभाव देखा जा सकता है किंतु प्राचीन काल में भारतीय साहित्य पर शुद्धतः धार्मिक भावनाओं का ही प्रभाव था। प्राचीन काल में विचारों को लिपिबद्ध करने का प्रचलन नहीं था। इस देश में प्रथा यह थी कि गुरु अपने शिष्य से अपना अर्जित ज्ञान को कहते थे और शिष्य उसे स्मरण के द्वारा संचित रखते थे। इसीलिये भारत में एक लंबे अंतराल तक श्रुतियों (सुना गया) और स्मृतियों (स्मृत रखा गया) की प्रथा चलती रही। चूंकि गद्य को याद रखना कठिन होता है और पद्य आसानी के साथ याद हो जाते हैं, इस देश में पद्यों की ही रचनाएँ होती रहीं जिसके परिणामस्वरूप अनेकों महाकाव्य बने।

दर्शन
वास्तव में वैदिक एवं पौराणिक साहित्य भारतीय दर्शन को ही प्रकट करते हैं। दर्शन का भारत पर सर्वाधिक प्रभाव रहा है। जहाँ एक ओर इस देश के ऋषि-मुनि पूर्णतः आध्यत्मिकता की शिक्षा देते हैं वहीं चार्वाक पूर्णतः सांसारिकता पर ही जोर देते हैं और दोनों ही सार्वजनिक रूप से मान्य हैं।

नृत्य एवं संगीत
भारत के निवासियों पर प्राचीन काल से ही नृत्य एवं संगीत का बहुत अधिक प्रभाव रहा है इसी कारण से संस्कृत में अनेकों नाटकों की रचनाएँ हुई जिनका नृत्य एवं संगीत के माध्यम से रसास्वादन किया जा सकता था। कालान्तर में नृत्य एवं संगीत भी दो मुख्य वर्गों में विभाजित हो गईं – उत्तर भारतीय और कर्णाटक।


चित्रकला
हमारे देश में यद्यपि विचारों को लिपबद्ध करने का प्रचलन नहीं था किंतु प्राचीन काल से अपने विचारों की अभिव्यक्‍ति चित्रकला के रुप में करने में लोगों की रुचि अवश्य ही रही है। यहाँ पाये जाने वाली अनेकों भित्तिचित्र इसी बात के उदाहरण हैं।


शिल्पकला
अजंता, एलोरा आदि गुफाओं में बनीं मूर्तियाँ इंगित करती हैं कि भारत के लोगों में प्राचीन काल से ही शिल्प कला के प्रति अत्यंत ही रुचि रही है।

वास्तुकला
उत्तर तथा दक्षिण भारत के अनेकों मंदिर, दुर्ग आदि इस देश की वास्तुकला की प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।
संक्षेप में कहा जाये तो भारतीय संस्कृति अनेकता में एकता का सबसे बड़ा उदाहरण है।